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जिंदगी इम्तिहान लेती है करने जैसी नहीं है। इच्छा नहीं, तृष्णा नहीं, अभिलाषा नहीं। वैसे, किसी के प्रति रोष करने जैसा नहीं है। रोष नहीं, ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं, दोषदर्शन नहीं, निन्दा नहीं। क्षणभंगुर जिन्दगी में ये राग-द्वेष कर आत्मा को मलीन करने में बुद्धिमत्ता नहीं है। बुद्धिमत्ता है, आत्मभाव को निर्मल बनाने में। बुद्धिमत्ता है, वैराग्य को, प्रशम को स्थिर करने में। __अभी यहाँ 'प्रशमरति' ग्रन्थ पर प्रवचन हो रहे हैं। 'प्रशमरति' पर जब बोलो तब नया ही लगता है। 'प्रशमरति' पर जब लिखो, नया ही लगता है। आन्तर शान्ति, आन्तर प्रसन्नता पाने के लिए इस ग्रन्थ का चिन्तन-मनन अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। अनन्त विषमताओं से भरे हुए संसार में प्रशमरस की अनुभूति कितनी दुर्लभ है, कितनी मूल्यवान है... वह तो सोचने पर ज्ञात होता है। यदि तू आन्तर प्रसन्नता का सदैव आस्वाद करना चाहता है और मन को बाह्य परिस्थितियों के प्रभाव से मुक्त रखना चाहता है... तो तू 'प्रशमरति' का अध्ययन कर, पुनः-पुनः चिन्तन-मनन कर। __ 'प्रशमरति' पर विवेचन लिखता जा रहा हूँ। लिखने में भी आत्म-प्रसन्नता का अनुभव होता है। पढ़ने वालों को तो आत्मशान्ति मिलेगी तब मिलेगी... मुझे तो ऐसे आनन्द की अनुभूति होती है... कि पत्र में लिख नहीं सकता, उस आनन्द को शब्दों में बाँध नहीं सकता। ___ पर्युषण महापर्व का प्रारंभ हो गया है। हृदयशुद्धि का और परमात्मा श्री महावीर स्वामी की मधुर स्मृति का यह महापर्व है। जैन शासन का यह पर्व विश्व में अद्वितीय है। निर्वैर वृत्ति और मैत्री पूर्ण प्रवृत्ति का यह पर्व हर दृष्टि से श्रेष्ठ लगता है। पर्व को मनाने की भी दृष्टि चाहिए! हृदय में जलती हुई द्वेष की आग को बुझा देना और जीव मैत्री के पुष्पों को विकसित करना-इस पर्व की फलश्रुति है। तपश्चर्या से, धर्मक्रियाओं से एवं प्रवचन श्रवण से वैरवृत्ति को नष्ट कर देना है। सभी जीवों के हित की कामना करते हुए, किसी का भी अहित नहीं करने का दृढ़ संकल्प करना है।
पर्युषण महापर्व के दूसरे दिन यह पत्र लिख रहा हूँ। समग्र वर्ष में जानतेअनजानते तेरे हृदय को दुःख पहुँचाया हो तो क्षमा कर देना । अन्तःकरण से क्षमा चाहता हूँ। आत्मीयता में कभी तीव्रता आ जाती है तो आत्मीय व्यक्ति को दुःख हो जाय वैसा लिख दिया जाता है, बोल दिया जाता है। तेरा आत्मभाव प्रसन्न रहे यही मंगलकामना ।
डीसा, २१-८-७९
- प्रियदर्शन
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