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जिंदगी इम्तिहान लेती है
माता-पिता इत्यादि परिवार से सुख पाने की दृष्टि, अर्थात 'सब परिवार वालों को मेरे सुख का, मेरी शांति का विचार करना चाहिए, मुझे सुख देना चाहिए..' ऐसा विचार ही भयंकर है। तू कहेगा : 'क्या मनुष्य सुख नहीं चाहता? सुख के बिना जीवन जी सकेगा?' तेरी बात सच है, प्रत्येक मनुष्य सुख चाहता है और जीवन सुखमय हो - यह इच्छा भी स्वाभाविक है। परन्तु एक सत्य-एक सिद्धांत तू अपनी डायरी में लिख कर रख ले : सुख मिलना अपने पुण्य के आधीन है, सुख देना अपने गुणों के आधीन है! __ तू सुख पाने की इच्छा नहीं करेगा तो भी सुख मिलेगा - यदि तेरे 'पुण्यकर्म' शुभ - प्रारब्ध उदय में आएँगे तो। सुख देने की भावना तो रखनी ही पड़ेगी। सुख देने में तू स्वतंत्र है, सुख पाने में नहीं। सुख मिलने का केन्द्र' दूसरा है, तू सुख लेने के लिए देखता है परिवार की तरफ! मेरा तो यह कहना है कि तू अब सुख पाने की - सुखी हो जाने की इच्छा छोड़ दे, तेरे से हो सके इतना दूसरे जीवों को सुख देने का कार्य प्रारंभ कर दे। स्वार्थ का विसर्जन करना ही पड़ेगा। तुझे कोई स्वार्थ नहीं होगा, फिर तेरी दृष्टि में माता-पिता वगैरह स्वार्थी नहीं दिखेंगे, तू उनके ही सुख का विचार करेगा, उनके सुख के लिए तू अपने सुखों का भी त्याग कर दे!
राजा दशरथ का दुःख देखकर श्री राम ने अपने सुखों का त्याग नहीं कर दिया था? कैकेयी ने अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन माँग लिया, दशरथ द्विधा में पड़ गए, राज्य पर अधिकार राम का है, माँग लिया कैकेयी ने...! दशरथ कैकेयी के साथ वचनबद्ध थे... श्री राम ने पिता की उलझन को समझा, उन्होंने क्षण का भी विलंब किए बिना, वनवास स्वीकार कर लिया, अपने सुखों का विचार तक नहीं किया, पिता की उलझन का ही विचार किया! श्री राम ने वहाँ : 'माता कैकेयी स्वार्थी है, अधम है... अन्यायी है... ऐसा कुछ नहीं कहा! अरे, ऐसा कुछ सोचा भी नहीं था! पिता के प्रति भी श्री राम ने कोई अनुचित विचार नहीं किया था।
यदि श्री राम अपने सुखों के बारे में ही सोचते, तो रामायण कोई दूसरी तरह की ही होती ना? अपने ही सुखों का विचार करते तो राम अपने पिता दशरथ से लड़ते! माता कैकेयी से झगड़ते! राज्य का बँटवारा होता... अथवा गृहकलह हो जाता... | श्री राम के हृदय में महाराजा दशरथ के प्रति अथवा माता कैकेयी के प्रति किसी भी तरह का द्वेष या दुर्भाव पैदा ही नहीं हुआ। उन्होंने तो अपना ही कर्तव्य सोचा । 'ऐसी परिस्थिति में पिताजी के प्रति मेरा
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