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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१४० ® बारिश के दिनों में बच्चे गीली मिट्टी में पैर रखकर घर बनाते हैं... फिर
जब वे टूट जाते हैं या बिखर जाते हैं, तो वे बच्चे रोते हैं... बिलखते हैं...
जैसे कि उनका सचमुच का घर टूट गया हो! ® संध्या के समय क्षितिज पर अनेक रंग उभरते हैं। अनेक आकृतियों का
शामियाना तन जाता है। पर पल दो पल का सारा खेल...! और फिर रात
की स्याह चादर तले सब कुछ लुप्त हो जाता है! ® सिनेमा के पर्दे पर शेर की गर्जना सच्ची होते हुए भी वास्तविकता से परे होती है। उस गर्जना से कोई घबरा उठता है या भयभीत हो उठता है, तो
उसे हम क्या कहेंगे? बचपना और नादानी ही ना? ® शास्त्र ज्ञान के माध्यम से सम्यग् ज्ञानदृष्टि को प्राप्त कर लेना चाहिए। फिर
हर एक घटना का सम्यग्दर्शन हो सकेगा।
Kan
पत्र : ३२
प्रिय मुमुक्षु,
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला | इतना विषाद क्यों? इतनी अन्तर्वेदना क्यों? मैं चाहता हूँ कि तू अविलंब विषादमुक्त बनजा, वेदनारहित बनजा। जानता है, तेरे अन्दर में इतना विषाद क्यों उभर आया है? इतनी घोर वेदना क्यों पैदा हुई है? असत् को सत् मान लिया है! काल्पनिक को वास्तविक मान लिया है! __ वर्षा काल था। बरसात बरसने से जमीन गीली हो गई थी। रास्ते की मिट्टी से छोटे बच्चे घर-घर खेल रहे थे। अपने छोटे-छोटे पैरों पर मिट्टी चढ़ाकर उन्होंने छोटे-छोटे घर बनाए थे। 'यह मेरा घर... यह मेरा घर...' बोलते नाच रहे थे। इतने में दो गधे दौड़ते आए और बच्चों के घर तोड़ते हुए चले गए.. बच्चे रोने लगे... 'गधों ने हमारे घर तोड़ डाले...।' बच्चों का रुदन सुनकर माताएँ घर से बाहर आई। बच्चों को पूछा : 'क्या हुआ? क्यों रोते हो?' बच्चों ने रोते-रोते कहा : 'हमारे घर गधों ने तोड़ दिये...' माताएँ हँसने लगी!
सिनेमा के पर्दे पर खूखार शेर दिखाई दिया और उसकी भयानक गर्जना थिएटर में गूंज उठी... बच्चा घबरा गया... माँ से चिपक गया और कहने लगा
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