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जिंदगी इम्तिहान लेती है
१२६ ____ गुरु ने भर्तृहरि की कुछ परीक्षा ली। जब भर्तृहरि परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ तब गुरु ने उनको संन्यास दीक्षा दी। तब भर्तृहरि में 'मैं संन्यासी हूँ' वैशिष्ट्यकल्पना भी नहीं बची थी।
प्रिय मुमुक्षु! अपने वैशिष्ट्य का सौन्दर्य हमको इतना प्यारा है कि हमको आज परमात्मा का सौन्दर्य भी देखना पसन्द नहीं है । 'मेरी विशेषता दुनिया देखे, मेरे वैशिष्ट्य की दुनिया प्रशंसा करे, मेरी विशिष्टताओं की चर्चा घरघर में होने लगे।' यह एक ऐसी मानवीय वासना है कि उसको हृदय से निकालना आसान काम नहीं है। इस वासना को निकाले बिना आध्यात्मिक विकास भी संभव नहीं है।
धर्म की आन्तर-आराधना में विकास पाना है तो 'विशिष्ट व्यक्तित्व' के मोहजाल को तोड़ना ही होगा। अन्तर्यात्रा में यह मोहजाल बाधक है। इतनी व्यापक है यह मोहजाल कि बड़े-बड़े तपस्वी भी इस जाल में फँस जाते हैं। बड़े-बड़े ज्ञानी भी इस जाल में उलझ गए हैं। प्रिय मुमुक्षु! तू जानता है न कि सिंहगुफावासी मुनि जैसे महान तपस्वी मुनि क्यों कोशा वेश्या के यहाँ वर्षावास करने गए थे? उनके मन में यही बात खटकी थी कि 'गुरुदेव ने मेरी विशेषता का पूरा-पूरा मूल्यांकन नहीं किया। स्थूलभद्रजी की विशेषता को जितनी बधाइयाँ दी गई, मेरी विशेषता को उतनी बधाइयाँ नहीं दी गई।' ईर्ष्या और द्वेष से जलने लगे। मुनि थे, तपस्वी थे, फिर भी अपने वैशिष्ट्य की प्रशस्ति सुनने की तीव्र इच्छा प्रबल थी।
स्थूलभद्रजी जैसे कामविजेता महामुनि के हृदय में भी अपने वैशिष्ट्य के प्रदर्शन की एवं अपनी बहिन-साध्वियों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने की तीव्र इच्छा सलामत थी। गुरुदेव भद्रबाहुस्वामी ने इस वैशिष्ट्य-प्रदर्शन की वासना में, श्रेष्ठज्ञान-प्राप्ति की अपात्रता देखी। नहीं दिया वह श्रेष्ठ ज्ञान।
प्रिय आत्मीय मुमुक्षु! संसार के क्षेत्र में आज स्व-वैशिष्ट्य का प्रदर्शन करना, अपने मुँह से अपनी विशेषताओं के गीत गाना, अपने सौन्दर्य की स्वयं प्रशंसा करना, सामान्य हो गया है। अपनी संस्कृति में यह बात बुरी मानी गई है। चूंकि धर्म एवं अध्यात्म के साथ इस बात का समन्वय नहीं हो सकता। अन्तर्विकास में रुकावटें आ जाती हैं। मन अशांत एवं अतृप्त बना रहता है। अपने वैशिष्ट्य का प्रदर्शन करने में एवं प्रशंसाश्रवण में मन उलझा हुआ रहता है। अतृप्ति ही अतृप्ति बनी रहती है। इसलिए तुझे कहता हूँ कि तू इस वासना के पाश में मत फँसना ।
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