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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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इस विश्व में जहाँ देखो वहाँ सुन्दरता, कुरूपता का उपहास करती दिखाई दे रही है। कुरूपता, सुन्दरता से ईर्ष्या करती दिखाई दे रही है । सुन्दरता की आँखों में उपहास के उन्मत्त भाव भरे हैं, तो कुरूपता की आँखों में ईर्ष्या की आग सुलग रही है। दोनों अशांत हैं, दोनों बेचैन हैं, दोनों संत्रस्त हैं।
सौन्दर्य मनुष्य को इसलिए पसन्द है, भाता है, चूँकि सौन्दर्य मनुष्य को विशिष्टता प्रदान करता है । मनुष्य अपना वैशिष्ट्य चाहता ही है। वैशिष्ट्य 'अहं' की खुराक है ! मनुष्य अपनी विशिष्टता बढ़ाने के लिए कुछ न कुछ करता ही रहता है । अथवा मनुष्य जो कुछ करता है, उसमें अपनी विशिष्टता को उभारने की वृत्ति बनी रहती है। इस प्रकार अहंकार पुष्ट बनता जाता है। यदि मनुष्य जागृत न हो तो उसका अहंकार इतना बढ़ जाता है कि वह परमात्मा को भी तुच्छ मानने लगता है।
संसार की सुख-सुविधाओं का त्याग करना सरल है। स्नेही-स्वजनों का त्याग करना आसान है, कुछ समय के लिए भोजन का त्याग करना भी मुश्किल नहीं है... परंतु अपनी विशिष्टता का त्याग करना बड़ा मुश्किल कार्य है। राज्यवैभव छोड़ा जा सकता है, विशिष्टता का वैभव छोड़ना सरल काम नहीं है।
जब भर्तृहरि राज्य का त्याग कर संन्यास लेने सद्गुरु के पास पहुँचे, गुरुदेव से विनम्र शब्दों में प्रार्थना की, 'गुरुदेव, मुझे संन्यास - दीक्षा देने की कृपा करें।'
गुरुदेव जानते थे कि 'यह राजा भर्तृहरि है। राज्य का भोग-सुखों का त्याग कर रहा है। संन्यास में मात्र बाह्य भौतिक सुखों का ही त्याग अपेक्षित नहीं है, चाहिए अपनी महत्वाकांक्षाओं का त्याग । चाहिए अपने विशिष्ट-वैभवों का त्याग। संन्यास लेने के पश्चात उसको यह ख़्याल नहीं आना चाहिए कि 'मैं दूसरे संन्यासियों से श्रेष्ठ हूँ, चूँकि मैंने राज्य का त्याग किया है। दूसरों से बढ़कर मैंने त्याग किया है... मैं इन सब संन्यासियों में विशिष्ट हूँ... श्रेष्ठ हूँ ।'
गुरुदेव ने भर्तृहरि को कहा : 'अभी तुम इस आश्रम में रहो, योग्य समय आने पर तुम्हें संन्यास - दीक्षा मिलेगी । ' भर्तृहरि ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य की। गुरु यही देखना चाहते थे कि भर्तृहरि अपना वैशिष्ट्य कब भूलते हैं? 'मैं राजा हूँ', यह राजापने का वैशिष्ट्य जब तक वह नहीं भूले, तब तक उसमें सच्ची विनम्रता नहीं आ सकती और विनम्रता के बिना संन्यास कोई महत्व नहीं रखता ।
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