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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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खतरा है। ऐसे लोग यदि प्रेम करने आएँ तो भी नहीं करना ! प्रेम क्या, परिचय भी नहीं करना चाहिए ऐसे लोगों से । यदि मेरी बात तुझे जँच जाय तो अच्छा है। तेरी व्यथा, तेरी वेदना दूर हो जाये, यही मेरी मनोकामना है।
तू क्या अन्तर्निरीक्षण करेगा ? स्वस्थ बनकर सोचेगा ? तुझे कहाँ जाना है ? क्या पाना है? आज तू कहाँ जा रहा है ? कहाँ पहुँच गया है ? तेरे दिल में आग धधक रही है और तेरी आँखें आँसू बरसा रही हैं। तू अकेला तड़प रहा है...। तेरी इस विवशता पर मेरा हृदय तीव्र संवेदना अनुभव करता है।
लौट जा अपने सही रास्ते पर अपनी आत्मा को सम्हाल ले। अपने महान कर्तव्यों का पालन करने हेतु तत्पर बन जा । तेरी जो सूक्ष्म बुद्धि है, तेरी जो कार्यकुशलता है, तेरी जो मोहक प्रतिभा है उसका विनियोग कर दे समष्टि के कल्याण में। विनियोग कर दे जीव मात्र के हित में । तू भूल जा तेरे स्वयं के व्यक्तित्व को और भूल जा स्वयं के अस्तित्व को । तेरा स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है, स्वतंत्र कोई व्यक्तित्व नहीं है। तू है, मात्र अनन्त जीवसृष्टि का एक कण !
विचारों को व्यापक बना ले। स्वकेन्द्रित विचारधारा को बदलना ही होगा। जब तक स्वकेन्द्रित बना रहेगा, तेरी आन्तरिक व्यथा का अंत नहीं आएगा । तेरी वेदना की आग नहीं बुझेगी । तू प्रतिदिन, थोड़ी क्षणों के लिए 'अहं' से मुक्त होकर, 'मम' से मुक्त होकर चिंतनशील बन । तेरी समस्याओं का समाधान तू स्वयं पा लेगा । तेरे प्रश्नों के उत्तर तुझे स्वयं प्राप्त हो जाएँगे ।
आज तुझे ज़्यादा नहीं लिखूँगा । लिखना तो बहुत है, परंतु आज नहीं । अत्यंत कार्यव्यस्त हूँ। अभी-अभी गणिपद - महोत्सव हो गया। बाहर गाँवों से परिचित-अपरिचित लोगों का आना-जाना जारी है । पत्रवर्षा भी निरन्तर चालू है । प्रत्युत्तर देना आवश्यक मानता हूँ।
प्रिय मुमुक्षु ! क्या-क्या लिखूँ, क्या-क्या न लिखूँ ? तू यदि यहाँ पर आ जाये तो बहुत बातें करनी हैं। यहाँ सब सुविधा है। सौराष्ट्र के आतिथ्य का भी मधुर अनुभव होगा।
अल्पक्षणों के लिए भी व्यथामुक्त बन कर मेरी बातों पर चिंतन करके पत्र लिखना । यदि तू मेरे प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखता है तो इसी क्षण से तू वेदनारहित बन जा। मन को वेदना से मुक्त कर दे। मन में परमात्मा की पावनकारी प्रतिष्ठा कर दे।
२०-७-७८, लींबडी (सौराष्ट्र)
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प्रियदर्शन