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जिंदगी इम्तिहान लेती है
११६ का, वचन की शक्ति का और काया के शक्ति का दुर्व्यय नहीं करना, सद्व्यय करना साधक मनुष्य के लिए अनिवार्य शर्त है।
नौवाँ वीर्य है, तपोवीर्य | बाह्य और आन्तर तपश्चर्या के बारह प्रकार हैं। आत्मा की विशुद्धि के लक्ष्य से जो साधक साधनापथ पर चलता है, उसके जीवन में उल्लासपूर्वक यह बारह प्रकार की तपश्चर्या देखने को मिलेगी ही। आन्तर तपश्चर्या का लक्ष्य बनाकर बाह्य तपश्चर्या वह करता ही रहेगा।
दसवाँ वीर्य है, संयमवीर्य । पाँच इंद्रियों का निग्रह, पाँच आश्रवों से विरति, चार कषायों पर विजय और मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति का त्याग- यह है १७ प्रकार का संयम | ऐसे संयम में साधक अपनी पूरी ताकत लगा देता है, चूँकि यही उसकी साधना है, इसी साधना के लिए उसने अपना जीवन समर्पित किया होता है। जरा भी मन को शिथिल किए बिना संयम-आराधना में साधक तल्लीन रहता है।
ग्यारहवाँ वीर्य है, अध्यात्मवीर्य | अध्यात्म की परिभाषा यहाँ गजब की गई है! 'मेरी संयम आराधना में कोई भी दोष नहीं लगे, ऐसी सावधानी का नाम है, अध्यात्म! ऐसा अध्यात्मवीर्य जिस साधक की आत्मा में उल्लसित हो वह साधक कैसा महान योगी बन सकता है। निरतिचार संयमधर्म का पालक ही तो महान योगी पुरुष होता है। __ प्रिय मुमुक्षु! साधु जीवन में वैराग्य के साथ ये सारी बातें अपेक्षित हैं। तूने कैसा प्रश्न पूछ लिया!! मैंने भी कितना लंबा उत्तर लिख दिया! तू इन ११ प्रकार के 'वीर्य' के विषय में मनन करना। कुछ बातें तू शायद नहीं समझ पाएगा। जब तू यहाँ आएगा, विस्तार से समझाऊँगा।
हम लिंबडी में आ गए हैं। वर्षाकाल यहाँ व्यतीत करने का है। नगर छोटासा है, परंतु स्वच्छ और सुंदर है। तीन आकर्षक जिनमंदिर हैं। उपाश्रय, धर्मशाला और आयंबिल भवन भी है। ६०० करीबन जैन परिवार हैं। मूर्तिपूजक और स्थानकवासी-दोनों समाज में दुर्भावना नहीं है, क्लेश नहीं है। हमारा उपाश्रय भी ऐसा है कि स्वाध्याय ध्यान बड़ी शांति से हो रहा है। प्रवचन में लोग अच्छी तादाद में लाभ ले रहे हैं।
आत्म विशुद्धि की आराधना में तेरी प्रगति होती रहे, यही मंगल कामना । १४-६-७८, लिंबडी (सौराष्ट्र)
- प्रियदर्शन
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