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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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करने की सिद्धि प्राप्त कर ली। वह गुरु के पास गया और गर्व से बोला : 'गुरुदेव ! मैं पानी पर चल सकता हूँ और जो चाहूँ वह वस्तु प्राप्त कर सकता हूँ।'
गुरुदेव बोले : 'यह कोई बड़ी बात नहीं है। पानी पर चला देने का काम तो नाविक भी कुछ पैसे लेकर कर देता है और वस्तुएँ बनाने का जहाँ तक प्रश्न है, मामूली से जादूगर भी रुपया फल, पुष्प... बनाते रहते हैं ! क्या इतनी सारी तपस्या व साधना का उद्देश्य इस तरह की तुच्छ शक्तियों की प्राप्ति के लिए ही था ? तपस्या व साधना का ध्येय तो परमात्म-प्राप्ति ही होना चाहिए, आत्मा और परमात्मा का अभिन्न संबंध स्थापित करने के लिए ही होना चाहिए।'
सातवाँ वीर्य है, उपयोगवीर्य । द्रव्य-क्षेत्र - काल और भाव के ज्ञानसाधक को, आत्मसाधक होना चाहिए। आत्मसाधक ज्ञानी होना चाहिए। उसका प्रत्येक कार्य ज्ञानदृष्टि से होना चाहिए । द्रव्य - क्षेत्र - काल और भाव का ज्ञानी और हर कार्य में उस ज्ञान का उपयोग ! इसको कहते हैं, उपयोग वीर्य । उपयोग के मुख्य दो भेद बताए गए हैं : साकार और अनाकार । साकारोपयोग के आठ प्रकार हैं और अनाकार उपयोग के चार प्रकार हैं । प्रस्तुत में उन भेदप्रभेदों की चर्चा नहीं करना है । मुझे तो यह बताना है कि मोक्षमार्ग की आराधना करने वाले आराधक में प्रतिपल जागृति चाहिए ! उपयोग यानी जागृति !
आठवाँ वीर्य है, योगवीर्य । जैन परिभाषा में 'प्रवृत्ति' को भी योग कहा गया है । मन की प्रवृत्ति को मनोयोग, वचन की प्रवृत्ति को वचनयोग और काया की प्रवृत्ति को काययोग । अशुभ प्रवृत्ति को अशुभयोग और शुभ प्रवृत्ति को शुभयोग कहा गया है। इसी संदर्भ में यहाँ तीन प्रकार के योगवीर्य बताए गए हैं। मनोवीर्य, वचनवीर्य और कायवीर्य ।
चित्त की, मन की अशुभ, अपवित्र वृत्तियों का विरोध करना, मनोवीर्य है । वैसे, शुभ और पवित्र विचारों में मन को प्रवृत्त करना भी मनोवीर्य है।
वचनवीर्य का अर्थ है, निष्पाप वचन बोलना, पुनरुक्तिरहित वचन बोलना । कर्कश, अहितकारी और असत्य नहीं बोलना । प्रिय, पथ्य और सत्य वचन होता है, वचनवीर्य |
कायवीर्य का अर्थ है, कायसंकोच । निष्प्रयोजन अपने हाथ-पैरों का प्रसारणसंकुचन नहीं करना। कूर्म की तरह काया का संगोपन करना । शरीरशक्ति का तनिक भी अपव्यय नहीं करना, साधक जीवन के लिए अनिवार्य है | विचारशक्ति
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