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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज । मैंने उनके ही पावन चरणों में श्रमण जीवन स्वीकार किया था। दीक्षा और शिक्षा दोनों, उन परम करुणावंत परम गुरुदेव श्री से पाई थी ।
वे जैन-आगम ग्रन्थों के प्रौढ़ विद्वान थे । 'कर्म-फिलॉसॉफी' के अनेक ग्रन्थों का उन्होंने तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अनेक साधुओं को अध्यापन कराया था। संयम जीवन की महायात्रा के वे अप्रमत्त, सदैव जागृत यात्री थे। कितना उनका वात्सल्यपूर्ण हृदय था! महान आचार्य होते हुए भी वे विनम्र थे । कोई अभिमान नहीं, कोई सम्मानलिप्सा नहीं । चारित्रधर्म उनको आत्मसात हो गया था। हजारों स्त्री-पुरुषों को उन्होंने चारित्रधर्म के चाहक और आराधक बनाए थे। उनमें मानसिक और शारीरिक अपूर्व सहनशीलता थी। मैंने उनके जीवन में इतनी विशेषताएँ पाई हैं कि उन विशेषताओं का वर्णन लिखने बैठूं तो कई वर्ष निकल जाय! जब हम खंभात में थे, तभी उनकी १० वीं स्वर्गारोहण तिथि आई थी । वैशाख वद : ११ ( राजस्थानी जेठ वद ११) उनकी स्वर्गवास तिथि है ।
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उन्होंने आधुनिक शिक्षा नहीं पाई थी, फिर भी आधुनिक शिक्षा पाने वाले अनेक युवक उनके शिष्य बने। अनेक संपन्न परिवार के युवकों ने और प्रौढ़ों ने उनके चरणों में जीवन समर्पण किया था। उनका जीवन तपोमय था, फिर भी उनकी मुखाकृति उग्रता की विकृति से मुक्त थी। वे उतने ही उदार, सहनशील और गंभीर प्रकृति के महापुरुष थे।
मैंने तुझे गत पत्र में 'सूत्रकृताङ्गसूत्र' के अनुसार ११ प्रकार के ‘वीर्य' के विषय में लिखा था न? इस महापुरुष के जीवन में ये ग्यारह प्रकार के 'वीर्य' उल्लसित थे। ऐसा प्रतीत होता था ।
तीन प्रकार के वीर्य गत पत्र में बताए थे : १. उद्यमवीर्य, २ . धृतिवीर्य, ३ . धीरतावीर्य । जिस किसी को आत्मसाधना के पथ पर अग्रसर होना है, उनमें ये वीर्य अवश्य होने ही चाहिए। इसके बिना वह आत्मकल्याण के मार्ग पर प्रगति नहीं कर सकता ।
चौथा वीर्य है, शौण्डीर्य वीर्य । इसका सीधा अर्थ होता है, त्याग-संपन्नता । उसका हृदय त्यागप्रिय हो । भोगलालसा नष्ट हो गई हो, अथवा उपशांत हो गई हो। शौण्डीर्य-वीर्य का दूसरा अर्थ है, आपत्ति में अदीनता ! आपत्ति में खेद नहीं, ग्लानि नहीं, दीनता नहीं । कैसा भी विकट कर्तव्य उपस्थित हो, जिस मनुष्य में शौण्डीर्य-वीर्य होगा, वह हर्ष से, उल्लास से विकट कर्तव्य का भी
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