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जिंदगी इम्तिहान लेती है
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करने चाहिए। यदि स्वयं समाधान नहीं कर सकता है, तो गुरुजनों के प्रति पूर्ण समर्पण करदे, गुरुदेवों से समाधान प्राप्त कर, स्थिरता प्राप्त करनी चाहिए ।
आजकल संसार में व्यापकरूप से मनुष्यों में चित्त की चंचलता और विकलता दिखाई दे रही है। इसमें भी तरुण और तरुणी, युवक व युवती विशेष रूप से चंचल और विकल पाए जा रहे हैं। असंख्य विकल्पों से उनका मन बेचैन है। उनके पास सही समाधान ढूँढ़ने का ज्ञान नहीं है। स्कूलकॉलेजों में ऐसा ज्ञान दिया नहीं जाता और जहाँ से ऐसा आत्मज्ञान मिल सकता है, वहाँ उनसे जाया नहीं जाता ! परिणाम स्वरूप, करोड़ों युवकयुवतियों का मानसिक-वैचारिक स्तर गिर गया है । वे अपने स्वयं के, परिवार के, समाज के, प्रश्न सुलझा नहीं सकते हैं। सुलझाने जाते हैं और उलझ जाते हैं! उनका जीवन अनेक व्यसनों से एवं विसंवादों से भर जाता है। वे दिशाशून्य एवं शून्यमनस्क भटक रहे हैं।
एक बात याद रखना कि हर मनुष्य में वैराग्य का बीज तो होता ही है । उस बीज को अंकुरित होने के लिए, विकसित होने के लिए चाहिए अनुकूल वातावरण! अनुकूल शिक्षा और दीक्षा ! वैराग्य को पनपने का आज वातावरण ही कहाँ है? राग-द्वेष को उत्तेजित करने का ही वातावरण बन गया है। वैराग्य का बीज भीतर ही भीतर सड़ जाएगा अथवा बीजरूप ही पड़ा रहेगा। वैराग्य के बिना जीवन के प्रश्नों का सच्चा समाधान मिलने वाला नहीं। गृहस्थजीवन में भी मन का विरक्तभाव अत्यंत आवश्यक है ! 'वैराग्य तो साधुसाध्वी में ही चाहिए', ऐसी भ्रमणा यदि मन में हो तो निकाल देना । जिस किसी को चित्तशांति चाहिए, मन की स्वस्थता चाहिए, आत्मा का ऊर्ध्वकरण चाहिए, उसको वैराग्यभावना का विकास करना ही होगा।
एक बात जरूरी नहीं है कि वैराग्य हो तो त्याग करना ही पड़े ! संसार के विषयसुख भोगने वाले भी वैरागी हो सकते हैं! वैरागी होने से विषयोपभोग में मनुष्य पागल नहीं बन जाता । उसकी चित्तवृत्तियाँ असंयमी नहीं बन जाती । वैराग्य के विकास में मनुष्य, पाप हो जाने पर भी, पश्चात्ताप करता है । 'मैंने यह काम अच्छा नहीं किया, मैंने बुरा काम किया... ऐसा विचार उसके मन में आ जाता है। ऐसे विचारों से बुरे कार्यों पर नियंत्रण आ जाता है ।
तूने तो साधु जीवन में वैराग्य की आवश्यकता बताई है, मैं कहता हूँ कि गृहस्थजीवन में भी वैराग्यमय अन्तःकरण चाहिए ! साधु जीवन में तो अनिवार्य
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