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जिंदगी इम्तिहान लेती है सकती?' ऐसे-ऐसे प्रश्न मन में उठने लगे... वहाँ मेरे एक मित्र मुनि की कही हुई एक बात याद आ गई! एक प्रसिद्ध विद्वान आचार्य के एक शिष्य हृदय रोग से स्वर्गवासी हो गए थे... प्रिय शिष्य था, शिष्य की मृत्यु होने पर आचार्य फूट-फूट कर रो पड़े थे! संसार के त्यागी और धर्मग्रंथों के अभ्यासी आचार्य भी रो पड़े थे!
जब यह घटना स्मृतिपटल पर आई तब उस वृद्ध सज्जन के प्रति सहानुभूति बढ़ गई! संसारत्यागी साधु यदि प्रियजन के विरह से व्याकुल बन जाता है, तो फिर संसारी अज्ञानी जीवों की तो बात ही क्या करना? परन्तु ऐसा क्यों बनता है? पचास-पचास वर्षों की धर्मआराधना मनुष्य के हृदय को अनासक्त नहीं बना सकती? संसार की आसक्ति मिटा नहीं सकती?
प्रिय मुमुक्षु! उस वृद्ध सज्जन के प्रति मेरे हृदय में खूब सहानुभूति है और उनकी वृद्धावस्था में उनकी समता-समाधि बनी रहे, ऐसी मेरी शुभकामना है, परन्तु उनकी बात ने मुझे गम्भीर चिन्तन की ओर प्रेरित कर दिया है।
यह संसार है, संसार में स्वजनवियोग, परिजनवियोग, वैभववियोग और शरीरवियोग... होना स्वाभाविक है। संसार में ऐसे वियोग होते रहते हैं, इसका असर मनुष्य पर होता है...मनुष्य व्यथित हो जाता है, बेचैन हो जाता है, विरहव्यथा से व्याकुल हो जाता है। ऐसी व्यथा और व्याकुलता का शिकार कौन बनता है? अज्ञानी मनुष्य! ज्ञानी जो होगा, नहीं बनेगा। सच्चा ज्ञानी होगा तो नहीं बनेगा | मात्र शास्त्रों का ज्ञानी नहीं, शास्त्रों के उपदेश को आत्मसात करने वाला ज्ञानी! मात्र धर्मक्रियाएँ करने वाला मनुष्य व्यथा और वेदना का शिकार बन जाएगा, यदि वह भावना ज्ञान से भावित है, तो नहीं बनेगा! मात्र तपश्चर्या करने वाला दुःखी हो जाएगा, यदि वह आत्मज्ञानी है, तो दुःखी नहीं बनेगा। ___ जो मनुष्य समझता है कि 'मैं स्वजनों से, परिजनों से, वैभव से और शरीर से भिन्न हूँ,' वह मनुष्य कभी भी शोकाक्रान्त नहीं बनेगा। यह समझ आत्मसात हो जानी चाहिए, अर्थात प्रतिदिन इस विचार को, इस सत्य को याद कर चिन्तन करना चाहिए | इसको 'भेदज्ञान' कहते हैं। अपनी आत्मा से यह सारा संसार भिन्न है, संसार के किसी भी पदार्थ का संयोग शाश्वत नहीं है, इस सत्य को अपने विचारों में ओतप्रोत कर देना चाहिए। यदि नहीं किया जाए तो वियोग की वेदना सहन करनी ही पड़ेगी।
संसार में रहना, संसार में जीना और हृदय को संसार से अलिप्त रखना,
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