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जिंदगी इम्तिहान लेती है
८९ ● विपरित परिस्थितियों में स्वस्थ एवं संतुलित रहने के लिए 'भेदज्ञान' यानी
आत्मा एवं अन्य पदार्थों का भिन्नत्व समझ लेना, समझ कर उसको स्वीकार
कर लेना आवश्यक है। ® संसार में रहकर भी सांसारिक उलझनों से अलग जीना, दुनिया में रहकर
भी दुनियादारी से ऊपर उठकर जीना कोई मामूली बात नहीं है... पर
असंभव भी नहीं है! ® व्यवहार की विधि में विसंवाद की व्यथा घेरेगी ही! ® 'एकत्वभाव' एवं 'अन्यत्वभाव' का गहरा चिंतन आत्मा को विरह एवं
वियोग की क्षणों में स्वस्थ रख सकता है। ® हृदय को किसी भी व्यक्ति या पदार्थ से बांधना नहीं! निबंधन होकर जीते
रहना।
पत्र : २०
प्रिय गुमुक्षु,
धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, मन प्रसन्न हुआ। डभोई से विहार कर बड़ौदा आए हैं। यहाँ प्रतिदिन प्रवचन होते हैं। अभी कुछ दिन यहाँ स्थिरता होगी। ___ दो दिन पूर्व एक वृद्ध पुरुष मेरे पास आए । यहाँ प्रतिदिन वे प्रवचन सुन रहे हैं। उन्होंने एक प्रश्न पूछा। प्रश्न क्या था, हृदय की गहरी वेदना थी। उनकी उम्र है ७७ वर्ष की । तीन महीने पूर्व उनकी ७३ वर्षीय पत्नी का स्वर्गवास हो गया है। पति-पत्नी दो ही थे, अब ये अकेले हो गए हैं। उनकी वेदना यह है कि उनको पत्नी की स्मृति बार-बार आती है! पत्नी का विरह उनको व्यथित कर रहा है। हैं, ये वृद्ध सज्जन परमात्मा के भक्त । प्रतिदिन परमात्मा का पूजन करते हैं और दूसरी भी धर्मक्रियाएँ करते हैं।
मैंने उनको बड़े प्रेम से आश्वासन दिया और विरह व्यथा से मुक्त होने के उपाय भी बताएँ, परन्तु मेरे मन में कुछ प्रश्न पैदा हो गए! उस रात को इस बात पर चिन्तन भी किया। '७७ वर्ष की वृद्धावस्था में पत्नी के विरह की वेदना? परमात्मपूजन वगैरह धर्मक्रियाएँ करने वाले के हृदय में व्यथा? क्या धर्मक्रियाएँ मनुष्य के हृदय को ऐसी परिस्थिति में व्यथारहित नहीं रख
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