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प्रवचन-१४
१९३ सभा में से : क्या पता हमारे हृदय ऐसे क्यों नहीं बनते? क्या करें ऐसा हृदय बनाने के लिए?
महाराजश्री : इसका अर्थ मैं ऐसा करता हूँ कि आपको अशुद्ध हृदय पसन्द नहीं है, आप हृदय की शुद्धि चाहते हो परन्तु शुद्ध हो नहीं रहा है। ठीक बात है न? अशुद्ध हृदय को शुद्ध करने में सफल नहीं हो रहे हो...आप, सही बात है न? __ सभा में से : सच्ची बात तो यह है कि हृदय को शुद्ध करने का प्रयत्न ही नहीं किया है आज तक! अब करना है! विशुद्ध हृदय से पुण्य कर्म का बंध : ___ महाराजश्री : कर सकते हो हृदय को विशुद्ध । संकल्प कर लो हृदय विशुद्ध करने का। विशुद्धि प्राप्त करने के लिए अशुद्धि दूर करनी होगी। जीवद्वेष और जड़राग की अशुद्धि दूर करो। अनेक जन्मों का अभ्यास हो गया है जीवद्वेष करने का, जड़राग करने का। इसलिए प्रयत्न मामूली नहीं चलेगा, जोरदार पुरुषार्थ करना पड़ेगा। वह पुरुषार्थ होगा मानसिक। जीव मात्र का अशुद्ध स्वरूप जानना होगा, वैसे कर्मों से मलिन स्वरूप भी जानना होगा। मदनरेखा ने यह ज्ञान बताया था इसलिए उसका हृदय विशुद्ध था। विशुद्ध हृदय पापकर्मों का बंधन नहीं होने देता है! शुभ कर्मों का ही बंधन होता है। विशुद्ध हृदय से ऐसे पुण्यकर्म बंधते हैं कि आत्मा परिपुष्ट बन जाती है। जड़ के प्रति राग को तोड़ो : ___ जब कभी दूसरे जीवों के प्रति ऐसा विचार आए कि : 'इसने मेरा अहित किया, इसने मुझे दुःख दिया, इसने मुझे नुकसान पहुँचाया ।' तुरंत ही विचार बदल देना । 'नहीं, इसने मेरा अहित नहीं किया है, मेरे पापकर्मों के उदय से मेरा अहित हुआ है। यदि मेरे पापकर्म उदय में नहीं आते तो मेरा कोई अहित नहीं कर सकता था। यह बेचारा तो निमित्त बना है! अथवा मैंने पूर्व जन्म में इसका अहित किया होगा, इसको दुःख दिया होगा, अन्यथा वह निमित्त नहीं बनता!' ऐसा विचार करने से जीवद्वेष नहीं होगा। वैसे जड़राग को मिटाने के लिए अनित्यभावना, अशुचिभावना, वगैरह भावनाओं से अपने मन को भावित करते रहो।
जड़राग, जड़ पदार्थों का अनुराग अनेक विषमताएँ पैदा करता है, अनेक अनर्थ पैदा करता है। मणिरथ को किसने भ्रमित किया? जड़राग ने! मदनरेखा
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