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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रवचन-१४ ___१९२ प्रति नफरत सी हो गई है! अब तो उसका मुँह तक देखना पाप मानता हूँ, मर कर नरक में जाएगा।' ऐसा-ऐसा तो बहुत-सा बोलते हैं! कहाँ रही ज्ञानदृष्टि? कहाँ रहा विवेक? मदनरेखा अब अपनी सुरक्षा का, अपने शील की सुरक्षा का विचार करती है। उसको अब महल में रहना सुरक्षित नहीं लगा। दूसरी बात, मदनरेखा गर्भवती थी। नौ महीने पूरे हो गए थे। उसको यह भय भी था कि रोषायमान मणिरथ उसकी भी हत्या कर दे, तो गर्भस्थ जीव की भी हत्या हो जाय ।' उसने अपने मन में निर्णय कर लिया कि वह अब महल में नहीं जाएगी। अपने पुत्र चन्द्रयश को एक तरफ ले जाकर उसको सारी बात बता दी और उसको एकदम सावधान रहने को कहा | चन्द्रयश तरुण था । कल्पनातीत घटनाओं ने उसको बेचैन बना दिया था। युगबाहु की मरणोत्तर क्रिया चन्द्रयश को सौंपकर मदनरेखा रात्रि के अंधकार में खो गई। मदनरेखा जंगल की ओर : जीवन के प्रति निःस्पृह परन्तु शील के प्रति सस्पृह वह महासती नगर से दूर-सुदूर चली गई। यदि जीवन का मोह होता तो वह ऐसा साहस नहीं करती। स्वयं चलकर असहाय स्थिति को मोल नहीं लेती। दूसरे जीवों के प्रति भरपूर स्नेहभाव से भरी हुई मदनरेखा स्वयं के प्रति निःस्नेह थी। स्वयं के जीवन के प्रति ममत्वहीन थी। हाँ, तो यही रहस्य है मैत्रीभावना का! स्वयं के जीवन के प्रति, स्वयं के सुखों के प्रति निःस्पृह और निःस्नेह मनुष्य ही दूसरे जीवों के प्रति मैत्री निभा सकता है। परहितनिरत बन सकता है। अपने ही सुखों का विचार करनेवाला मनुष्य दूसरों की हितचिंता कर ही नहीं सकता। वह तो अपने सुख के लिए दूसरों के सुख छीन लेगा! दूसरों को दुःखी करेगा। मणिरथ को सजा करवा कर, जेल में बंद करवा कर मदनरेखा निर्भयता से महल में रह सकती थी। परन्तु ऐसा नहीं किया उस महासती ने । वह स्वयं महल छोड़कर जंगल में चली गई। संसार में रही हुई स्त्री में कितनी महानता! दूसरे जीवों के प्रति कोई शत्रुता नहीं, तिरस्कार नहीं और अपने प्रति शीलरक्षा की अपूर्व दृढ़ता! आप लोगों के दिमाग में आती है यह बात? आप तो अच्छे समझदार और 'भगत' लोग है न? आपका अहित करनेवालों के प्रति शत्रुता नहीं रखते हो न? आपका सुख छीननेवालों के प्रति द्वेषतिरस्कार नहीं करते हो न? धर्मक्रिया करनेवालों के हृदय में मैत्रीभावना होना अनिवार्य है। For Private And Personal Use Only
SR No.009629
Book TitleDhammam Sarnam Pavajjami Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptasuri
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2010
Total Pages339
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size2 MB
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