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प्रवचन- ९
११८
तीव्र राग-द्वेष से पाप मत करो, पाप को पाप मानो । पापत्याग का आदर्श बनाओ। पापाचरण का दुःख होना चाहिए हृदय में ।
इस प्रकार पाप हो जाता हो जीवन में तो इससे कर्मबंध अल्प हो सकता है और ऐसे कर्मों का प्रदेशोदय भी हो सकता है। मुझे यह बात समझानी है कि आप लोग पापों को कर्तव्यरूप नहीं समझें। पाप हो जाने पर हृदय में घोर पश्चात्ताप करें।
पेथड़शाह का चिंतन :
महामंत्री पेथड़शाह की उम्र जवानी की थी। केवल ३२ वर्ष की उम्र थी। पत्नी पथमिणी रूपवती और गुणवती सन्नारी थी। पति के प्रति स्नेहयुक्त थी, कर्कशा नहीं थी, स्वच्छन्दी और उद्धत नहीं थी । विनीता थी । सौजन्यशीला थी। फिर भी महामंत्री ब्रह्मचर्य के चाहक थे ! अब्रह्मसेवन की वासना थी, तो ब्रह्मचर्यपालन की चाहना भी थी । ऐसी परिस्थिति में भीम श्रावक की ओर से ब्रह्मचारियों के लिए भेंट आई। महामंत्री ने उस उत्तम भेंट का भव्य स्वागत करने का सोचा। ‘एक महान ब्रह्मचारी नहीं हूँ, महामना भीम जानते भी होंगे, फिर भी उन्होंने मेरे पास भेंट भेजी है तो मुझे उसका स्वीकार कर लेना चाहिए...परन्तु मैं जब तक ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन नहीं करूँगा । उस पवित्र भेंट के दर्शन से मेरे हृदय में ब्रह्मचर्य - - व्रत का पालन करने की प्रबल भावना जागृत होगी।'
धर्म का प्राण : विवेक और औचित्य :
पेथड़शाह की विचारधारा कितनी विवेकपूर्ण और औचित्यपूर्ण है? जिसके हृदय में धर्म होता है, उसके विचार - आचार में विवेक एवं औचित्य सहजरूप में दिखाई देते हैं। अविवेक और अनौचित्य धार्मिक मनुष्य में नहीं हो सकते। यदि अविवेक और अनौचित्य हैं तो समझ लो कि धर्म हजारों मील दूर है। भले फिर आप मंदिर में आते हैं या उपाश्रय के पत्थर घिसते हैं। मंदिर में भी औचित्यपालन नहीं, उपाश्रय में विवेकपूर्ण आचरण नहीं... फिर घर और दुकान पर तो क्या करते होंगे ? न विवेक और औचित्य स्वयं प्रकट होते हैं, न सिखाने पर सीखते हो।
कितना समझाया कि परमात्मा के मंदिर में और उपाश्रय में विवेक से आया करो, जाया करो, परंतु मंदिर की सीढ़ियों पर भी दो महिला मिल गईं तो बस ! जोर-जोर से बातें चालू ! भगवान का अभिषेक करते समय, पूजा
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