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तब मैं समझाता हूँ कि जो प्रेम घटे-बढ़े वह सच्चा प्रेम ही नहीं है। आप हीरे के टोप्स लाकर दो, उस दिन बहुत प्रेम बढ़ जाता है, और फिर टोप्स न लाए तो प्रेम घट जाता है, उसका नाम प्रेम नहीं कहलाता।
प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम कम-ज्यादा नहीं होता, तो उसका स्वरूप कैसा होता है?
स्वभाव की होती है।
कोई बेटा अक्कल बगैर की बात करे कि 'दादाजी, आपको तो मैं अब खाने पर भी नहीं बुलाऊँगा और पानी भी नहीं पिलाऊँगा', तब भी इन 'दादाजी' का प्रेम उतरे नहीं और वह अच्छा भोजन खिलाया करे तो भी 'दादाजी' का प्रेम चढ़े नहीं, उसे प्रेम कहा जाता है। यानी भोजन करवाए तो भी प्रेम और न करवाए तो भी प्रेम, गालियाँ दे तो भी प्रेम
और गालियाँ न दे तो भी प्रेम, सब तरफ प्रेम ही दिखता है। इसलिए सच्चा प्रेम तो हमारा कहलाता है। वैसे का वैसा ही है न? पहले दिन जो था, वैसे का वैसा ही है न? अरे, आप मुझे बीस साल के बाद मिलो न तो भी प्रेम बढ़े-घटे नहीं, प्रेम वैसे का वैसा ही दिखे!
स्वार्थ बिना का स्नेह नहीं संसार में प्रश्नकर्ता : माता का प्रेम अधिक अच्छा माना जाता है, इस व्यवहार
दादाश्री : फिर दूसरे नंबर पर? प्रश्नकर्ता : दूसरे कोई नहीं। दूसरे सब स्वार्थ के प्रेम
दादाश्री : ऐसा? भाई-वाई सभी स्वार्थ? ना, आपने प्रयोग करके नहीं देखा होगा?
प्रश्नकर्ता : सभी अनुभव है।
दादाश्री: और ये लोग रोते हैं न, वे भी सच्चे प्रेम का नहीं रोते हैं, स्वार्थ के लिए रोते हैं। और यह तो प्रेम ही नहीं है। यह तो सब आसक्ति कहलाती है। स्वार्थ से आसक्ति उत्पन्न होती है। घर में हमें सभी के साथ घट-बढ़ बिना का प्रेम रखना है। परन्तु उन्हें क्या कहना है कि, 'आपके बगैर हमें अच्छा नहीं लगता।' व्यवहार से तो बोलना पड़ता है न! परन्तु प्रेम तो घट-बढ़ बगैर का रखना चाहिए।
इस संसार में यदि कोई कहेगा, 'तो स्त्री का प्रेम वह प्रेम नहीं है?'
दादाश्री : वह कम-ज्यादा नहीं होता। जब देखो तब प्रेम वैसा का वैसा ही दिखता है। यह तो आपका काम कर दें तब तक उसका प्रेम आपके साथ रहता है, और काम न करके दें तो प्रेम टूट जाता है, उसे प्रेम कहा ही कैसे जाए?
इसलिए सच्चे प्रेम की परिभाषा क्या? फूल चढ़ानेवाले और गालियाँ देनेवाले, दोनों पर समान प्रेम हो, उसका नाम प्रेम । दूसरी सभी आसक्तियाँ। यह प्रेम की डेफिनेशन कहता हूँ। प्रेम ऐसा होना चाहिए। वही परमात्म प्रेम है और यदि वह प्रेम उत्पन्न हुआ तो दूसरी कोई ज़रूरत ही नहीं। यह तो प्रेम की ही क़ीमत है सब!
मोहवाला प्रेम, बेकार प्रश्नकर्ता : मनुष्य प्रेम के बिना जी सकता है क्या?
दादाश्री : जिसके साथ प्रेम किया उसने लिया डायवोर्स, तो फिर किस तरह जीए वह?! क्यों बोलते नहीं? आपको बोलना चाहिए न?
प्रश्नकर्ता : सच्चा प्रेम हो तो जी सकता है। यदि मोह होता हो तो नहीं जी सकता।
दादाश्री : सही कहा यह। हम प्रेम करें तब वह डायवोर्स लें. तो किस काम का ऐसा प्रेम! वह प्रेम कहलाए ही कैसे? अपना प्रेम कभी भी न टूटे ऐसा होना चाहिए, चाहे जो हो फिर भी प्रेम न टूटे। मतलब सच्चा प्रेम हो तो जी सकता है।
प्रश्नकर्ता : सिर्फ मोह हो तो नहीं जी सकता।