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या भगवान हों तब प्रेम देखता है, प्रेम में कम-ज्यादा नहीं होता, अनासक्त होता है, वैसा ज्ञानियों का प्रेम वही परमात्मा है। सच्चा प्रेम वही परमात्मा है, दूसरी कोई वस्तु परमात्मा है नहीं। सच्चा प्रेम, वहाँ परमात्मापन प्रकट होता है!
सदा अघट, 'ज्ञानी' का प्रेम प्रश्नकर्ता : तो फिर इस प्रेम के प्रकार कितने हैं, कैसे हैं, वह सब समझाइए न!
है। और दूसरे दिन वह हमसे कहे, 'नोनसेन्स जैसे हो गए हो।' तो हो गया! और 'ज्ञानी पुरुष' को तो सात बार नोनसेन्स कहें तब भी कहेंगे, 'हाँ भाई, बैठ, तू बैठ।' क्योंकि 'ज्ञानी' खुद जानते हैं कि यह बोलता ही नहीं, यह रिकॉर्ड बोल रही है।
यह सच्चा प्रेम तो कैसा है कि जिसके पीछे द्वेष ही नहीं हो। जहाँ प्रेम में, प्रेम के पीछे द्वेष है, उस प्रेम को प्रेम कहा ही कैसे जाए? एकसा प्रेम होना चाहिए।
'प्रेम', वहीं पर परमात्मा प्रश्नकर्ता : तो सच्चा प्रेम यानी कम-ज्यादा नहीं होता।
दादाश्री : सच्चा प्रेम कम-ज्यादा नहीं हो, वैसा ही होता है। यह तो प्रेम हुआ हो तो यदि कभी गालियाँ दें तो उसके साथ झगड़ा हो जाए, और फूल चढ़ाएँ तो वापिस हमसे चिपक जाता है।
प्रश्नकर्ता : व्यवहार में घटता-बढ़ता है उसी प्रकार ही होता है।
दादाश्री: इन लोगों का प्रेम तो सारे दिन कम-ज्यादा ही होता रहता है न! बेटे-बेटियों सभी पर देखो न कम-ज्यादा ही हुआ करता है न! रिश्तेदार, सभी जगह बढ़ता-घटता ही रहता है न! अरे, खुद अपने पर भी बढ़ता-घटता ही रहता है न! घड़ी में शीशे में देखे तो कहे, 'अब मैं अच्छा दिखता हूँ।' एक घड़ी बाद 'ना, ठीक नहीं है' कहेगा। यानी खुद पर भी प्रेम कम-ज्यादा होता है। यह जिम्मेदारी नहीं समझने से ही यह सब होता है न! कितनी बड़ी जिम्मेदारी!
प्रश्नकर्ता : तब ये लोग कहते हैं न प्रेम सीखो, प्रेम सीखो!
दादाश्री : पर यह प्रेम ही नहीं है न! ये तो लौकिक बातें हैं। इसे प्रेम कौन कहे फिर? लोगों का प्रेम जो घटता-बढ़ता होता है वह सब आसक्ति, निरी आसक्ति है! जगत् में आसक्ति ही है। प्रेम जगत् ने देखा नहीं है। हमारा शुद्ध प्रेम है इसलिए लोगों पर असर होता है, लोगों को फायदा होता है, नहीं तो फायदा ही नहीं हो न! एकबार कभी ज्ञानी पुरुष
दादाश्री : दो ही प्रकार के प्रेम हैं। एक घटने-बढ़नेवाला, घटे तब आसक्ति कहलाता है और बढ़े तब आसक्ति कहलाता है। और एक घटताबढ़ता नहीं है वैसा अनासक्त प्रेम, वैसा ज्ञानियों को होता है।
ज्ञानी का प्रेम तो शुद्ध प्रेम है। ऐसा प्रेम कहीं भी देखने को नहीं मिले। दुनिया में जहाँ आप देखते हो, वह सारा ही प्रेम मतलबवाला प्रेम है। पत्नी-पति का, माँ-बाप का, बाप-बेटे का, माँ-बेटे का, सेठ-नौकर का, हर एक का प्रेम मतलबवाला होता है। मतलबवाला है, वह कब समझ में आता है कि जब वह प्रेम फ्रेक्चर हो जाए। जब तक मीठास बरतती है तब तक कुछ नहीं लगता, पर कड़वाहट खड़ी हो तब पता चलता है। अरे, पूरी ज़िन्दगी बाप के संपूर्ण कहे में रहा हो और एक ही बार गुस्से में, संयोगवश यदि बाप को बेटा'आप बगैर अक्कल के हो' ऐसा कहे. तो पूरी ज़िन्दगी के लिए संबंध टूट जाता है। बाप कहे, तू मेरा बेटा नहीं और मैं तेरा बाप नहीं। यदि सच्चा प्रेम हो तब तो वह हमेशा के लिए वैसे का वैसा ही रहे, फिर गालियाँ दे या झगड़ा करे। उसके सिवा के प्रेम को तो सच्चा प्रेम किस तरह कहा जाए? मतलबवाला प्रेम, उसे ही आसक्ति कहा जाता है। वह तो व्यापारी और ग्राहक जैसा प्रेम है, सौदेबाज़ी है। जगत का प्रेम तो आसक्ति कहलाता है। प्रेम तो उसका नाम कहलाता है कि साथ ही साथ रहना अच्छा लगे। उसकी सारी ही बातें अच्छी लगे। उसमें एक्शन और रिएक्शन नहीं होते। प्रेम प्रवाह तो एक सरीखा ही बहा करता है। घटता-बढ़ता नहीं है, पूरण-गलन नहीं होता। आसक्ति पूरण-गलन