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देना नहीं है। पर लोग तो भ्रांति से परमाणु के खिंचाव को मानते हैं कि, 'मैं खिंचा।' आत्मा खिंचता ही नहीं।
कहाँ भ्रांत मान्यता! कहाँ वास्तविकता! यह तो सूई और लोहचुंबक के आकर्षण के कारण आपको ऐसा लगता है कि मुझे प्रेम है इसीलिए मैं खिंचता हूँ। पर वह प्रेम जैसी वस्तु ही नहीं है।
रखना मत और किसीके प्रेम में फँसना नहीं। प्रेम का तिरस्कार करके भी मोक्ष में नहीं जाया जा सकता। इसलिए सावधान रहना। मोक्ष में जाना हो तो विरोधियों का तो उपकार मानना। प्रेम करते हैं वे ही बंधन में डालते हैं, जब कि विरोधी उपकारी-हेल्पिंग हो जाते हैं। जिसने अपने ऊपर प्रेम बरसाया है, उसका तिरस्कार न हो, वैसा करके छूट जाना। क्योंकि प्रेम के तिरस्कार से संसार खड़ा है।
'खुद' अनासक्त स्वभावी ही बाकी, 'आप' अनासक्त हो ही। अनासक्ति कोई मैंने आपको दी नहीं है। अनासक्त 'आपका' स्वभाव ही है और आप ऐसा मानते हो, दादा का उपकार मानते हो कि दादा ने अनासक्ति दी है। ना. ना. मेरा उपकार मानने की ज़रूरत नहीं है और 'मैं उपकार करता हूँ' ऐसा मानूँगा तो मेरा प्रेम खतम होता जाएगा। मुझसे 'मैं उपकार करता हूँ' ऐसा माना नहीं जा सकता। इसलिए खुद, खुद की पूरी समझ में रहना पड़ता है, संपूर्ण जागृति में रहना पड़ता है।
प्रश्नकर्ता : तो इन लोगों को ऐसा पता नहीं चलता कि अपना प्रेम है या नहीं?
दादाश्री : प्रेम तो सबको पता चलता है। डेढ वर्ष के बालक को भी पता चलता है, उसका नाम प्रेम कहलाता है। यह दूसरा सब तो आसक्ति है। चाहे जैसे संयोगों में भी प्रेम बढ़े नहीं और घटे नहीं, उसका नाम प्रेम कहलाता है। बाकी, इसे प्रेम कहा ही कैसे जाए? यह तो भ्रांति का है। भ्रांतभाषा का शब्द है।
आसक्ति में से उद्भव होता है बैर
इसलिए जगत् ने सभी देखा था पर प्रेम देखा नहीं था और जगत जिसे प्रेम कहता है वह तो आसक्ति है। आसक्ति में से ये बखेड़े खड़े होती हैं सारे।
और लोग समझते हैं कि प्रेम से यह जगत् खड़ा रहा है। पर प्रेम से यह जगत् खड़ा नहीं रहा है, बैर से खड़ा रहा है। प्रेम का फाउन्डेशन ही नहीं है। यह बैर के फाउन्डेशन पर खड़ा रहा है, फाउन्डेशन ही बैर के हैं। इसलिए बैर छोड़ो। इसलिए तो हम बैर का निकाल करने का कहते हैं न! समभावे निकाल करने का कारण ही यह है।
यानी अनासक्त आपका खुद का स्वभाव है। आपको कैसा लगता है? मैंने दिया है या आपका खुद का स्वभाव ही है?
प्रश्नकर्ता : खुद का स्वभाव ही है न!
दादाश्री : हाँ, ऐसा बोलो न ज़रा। यह तो सभी 'दादा ने दिया, दादा ने दिया' कहो तो कब पार आएगा?!
प्रश्नकर्ता : पर उसका भान तो आपने करवाया न?
दादाश्री : हाँ, पर भान करवाया, उतना ही! बाकी 'सब मैंने दिया है' ऐसा कहते हो पर वह आपका है और आपको दिया है।
प्रश्नकर्ता : हाँ, हमारा है वह आपने दिया है। पर हमारा था वैसा हम जानते कहाँ थे?!
दादाश्री : जानते नहीं थे पर जाना न आखिर तो! जाना उसका रौब
भगवान कहते हैं कि, द्वेष परिषह उपकारी है। प्रेम परिषह कभी भी नहीं छूटता। सारा जगत् प्रेम परिषह में ही फँसा हुआ है। इसलिए हर एक को दूर रहकर 'जयश्री कृष्ण' करके छूट जाना। किसीकी तरफ प्रेम