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पहनता हो या सफेद कोट-पेन्ट पहनता हो या चाहे जो पहनता हो। पर वह हमारी आज्ञा में रहा तो वह अनासक्त कहलाएगा। यह आज्ञा अनासक्त का ही प्रोटेक्शन है।
आसक्ति, परमाणुओं का साइन्स यह किसके जैसा है? यह लोहचुंबक होता है और यह आलपिन यहाँ पड़ी हो और लोहचुंबक ऐसे-ऐसे करें तो आलपिन ऊँचीनीची होती है या नहीं होती? होती है। लोहचुंबक पास में रखें तो आलपिन उसे चिपक जाती है। उस आलपिन में आसक्ति कहाँ से आई? उसी प्रकार इस शरीर में लोहचुंबक नाम का गुण है। क्योंकि अंदर इलेक्ट्रिकल बॉडी है, इसलिए उस बॉडी के आधार पर सारी इलेक्ट्रिसिटी हुई है। उससे शरीर में लोहचुंबक नाम का गुण उत्पन्न होता है, तब जहाँ खुद के परमाणु मिलते आएँ, वहाँ आकर्षण खड़ा होता है और दूसरों के साथ कुछ भी नहीं। उस आकर्षण को अपने लोग राग-द्वेष कहते हैं। कहेंगे, 'मेरी देह खिंचती है।' अरे, तेरी इच्छा नहीं तो देह क्यों खिंचती है? इसलिए तू कौन है वहाँ पर?!
हम देह से कहें, 'तू जाना मत', तब भी उठकर चलने लगता है। क्योंकि परमाणु का बना हुआ है न, परमाणु का खिंचाव है यह। मेल खाते परमाणु आएँ वहाँ यह देह खिंच जाती है। नहीं तो अपनी इच्छा न हो तब भी यह देह कैसे खिंच जाए। यह देह खिंच जाती है, उसे इस जगत् के लोग कहते हैं, 'मुझे इस पर बहुत राग है।' हम पूछे, 'अरे, तेरी इच्छा खिंचने की है?' तो वे कहेंगे, 'ना, मेरी इच्छा नहीं है. तब भी खिंच जाता है।' तो फिर यह राग नहीं है। यह तो आकर्षण का गुण है। पर ज्ञान न हो तब तक आकर्षण कहलाता नहीं है, क्योंकि उसके मन में तो ऐसा ही मानता है कि 'मैंने ही यह किया।' और यह 'ज्ञान' हो तो खुद सिर्फ जानता है कि देह आकर्षण से खिंची और मैंने कुछ किया नहीं। इसलिए यह देह खिंचती है न, वह देह क्रियाशील बनती है। यह सब परमाणु का ही आकर्षण है।
४४ का नहीं है। और यह देह आसक्त होता है, वह लोहचुंबक और आलपीन जैसा है। क्योंकि वह चाहे जैसा लोहचंबक हो तब भी वह तांबे को नहीं खींचेगा। किसे खींचेगा वह? हाँ, सिर्फ लोहे को ही खींचेगा। पीतल हो तो नहीं खींचेगा। यानी स्वजातीय को ही खींचेगा। वैसे ही इसमें जो परमाणु है न अपनी बोडी में, वे लोहचुंबकवाले हैं। वे स्वजातीय को ही खींचते हैं। समान स्वभाववाले परमाणु खिंचते हैं। पागल पत्नी के साथ बनती है
और समझदार बहन उसे बुलाती हो तब भी उसके साथ नहीं बनती। क्योंकि परमाणु नहीं मिलते हैं।
इसीलिए इस बेटे पर आसक्ति ही है खाली। परमाणु-परमाणु मेल खाते हैं। तीन परमाणु अपने और तीन परमाणु उसके, ऐसे परमाणु मेल खाएँ तब आसक्ति होती है। मेरे तीन और आपके चार हो तो कुछ भी लेना देना नहीं। यानी विज्ञान है यह सब तो।
यह आसक्ति, वह देह का गुण है, परमाणुओं का गुण है। वह कैसा है? लोहचुंबक और आलपिन में जैसा संबंध है वैसा, देह से मेल खाएँ हों, वैसे परमाणुओं में ही देह खिंचता है, वह आसक्ति है।
आसक्ति तो अबॉव नॉर्मल और बिलो नॉर्मल भी हो सकती है। प्रेम नॉर्मेलिटी में होता है, एक सरीखा ही होता है, उसमें किसी भी प्रकार का बदलाव होता ही नहीं। आसक्ति तो जड की आसक्ति है, चेतन की तो नाम मात्र की भी नहीं है।
व्यवहार में अभेदता रहे, उसका भी कारण होता है। वह तो परमाणु और आसक्ति के गुण हैं, पर उसमें कौन से क्षण क्या होगा वह कहा नहीं जा सकता। जब तक परमाणु मेल खाते हों तब तक आकर्षण रहता है, उसके कारण अभेदता रहती है। और परमाणु मेल न खाएँ तो विकर्षण होता है और बैर होता है। इसलिए आसक्ति हो, वहाँ बैर होता ही हैं। आसक्ति में हिताहित का भान नहीं होता। प्रेम में संपूर्ण हिताहित का भान होता है।
यह तो परमाणुओं का साइन्स है। उसमें आत्मा को कुछ भी लेना
ये मन-वचन-काया आसक्त स्वभाव के हैं। आत्मा आसक्त स्वभाव