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तो किस तरह किया जा सकता है?
प्रेम है। ईश्वर में रुचि ही नहीं और इसलिए ईश्वर में रमणता ही नहीं है। वह तो जब भय लगे, तब ईश्वर याद आते हैं।
प्रश्नकर्ता : ईश्वर में रुचि तो होती है, फिर भी कुछ आवरण ऐसे बंध जाते हैं इसलिए ईश्वर का नाम नहीं ले सकते होंगे।
दादाश्री : प्रेम है ही नहीं, तो फिर प्रेम की बात किसलिए करते हो? प्रेम है ही नहीं। सब मोह ही है यह तो। मोह! मूर्छित हो जाता है। बेभानपन, बिलकुल भान ही नहीं!
सिन्सियारिटी वहाँ सच्चा प्रेम सामनेवाले से कलमो (नियम) चाहे जितनी टें, सब आमने-सामने दिए हुए जो वचन चाहे जितने तोड़ें परन्तु फिर भी सिन्सियारिटी जाए नहीं, सिन्सियारिटी सिर्फ वर्तन में ही नहीं पर आँखों में भी नहीं जानी चाहिए, तब समझना कि यहाँ प्रेम है। इसलिए वैसा प्रेम ढूंढना। इसे प्रेम मानना नहीं। यह बाहर जो चला है, वह बाज़ारू प्रेम-आसक्ति है। वह विनाश लाएगा। फिर भी छुटकारा नहीं है। उसके लिए मैं आपको रास्ता बताऊँगा। आसक्ति में पड़े बगैर भी छुटकारा ही नहीं है न!
भगवत् प्रेम की प्राप्ति प्रश्नकर्ता : तो ईश्वर का परम, पवित्र, प्रबल प्रेम संपादन करने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : आपको ईश्वर का प्रेम प्राप्त करना है?
प्रश्नकर्ता : हाँ, करना है। अंत में हरएक मनुष्य का ध्येय यही है न? मेरा प्रश्न यहीं पर है कि ईश्वर का प्रेम संपादन करें किस तरह?
दादाश्री : प्रेम तो यहाँ सभी लोगों को करना होता है. पर मीठा लगे तो करे न? उस तरह से ईश्वर कहीं भी मीठा लगा हो, वह मुझे दिखाओ न!
प्रश्नकर्ता : क्योंकि यह जीव अंतिम क्षण में जब देह छोड़ता है, फिर भी ईश्वर का नाम नहीं ले सकता।
दादाश्री : किस तरह ईश्वर का नाम ले सकेगा? उसे जहाँ रुचि हो न, वह नाम ले सकेगा। जहाँ रुचि, वहाँ उसकी खुद की रमणता होती
दादाश्री : परन्तु ईश्वर पर प्रेम आए बगैर किसका नाम लें वे? ईश्वर पर प्रेम आना चाहिए न! और ईश्वर को प्रेम बहुत करे उसमें क्या फायदा? मेरा कहना है कि यह आम होता है, वह मीठा लगे तो प्रेम होता है और कड़वा लगे या खट्टा लगे तो? वैसे ही ईश्वर कहाँ पर मीठा लगा, कि आपको प्रेम हो?
ऐसा है, जीव मात्र के अंदर भगवान बैठे हुए हैं, चेतनरूप में है, कि जो चेतन जगत् के लक्ष्य में ही नहीं और जो चेतन नहीं है, उसे चेतन मानते हैं। इस शरीर में जो भाग चेतन नहीं है, उसे चेतन मानते हैं और जो चेतन है वह उसके लक्ष्य में ही नहीं, भान में ही नहीं। अब वह शुद्ध चेतन मतलब शद्धात्मा और वही परमेश्वर है। उसका नाम कब याद आएगा? कि जब हमें उसकी तरफ से कुछ लाभ हो और तभी उन पर प्रेम आता है। जिन पर प्रेम आए न, वे हमें याद आते हैं तो उनका नाम ले सकते हैं। इसलिए प्रेम आए ऐसे हमें मिलें, तब वे हमें याद रहा करते हैं। आपको 'दादा' याद आते हैं?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : उन्हें प्रेम है आप पर, इसलिए याद आते हैं। अब प्रेम क्यों आया? क्योंकि 'दादा' ने कोई सुख दिया है कि जिससे प्रेम उत्पन्न हुआ, और वह प्रेम उत्पन्न हो तब फिर भूला ही नहीं जाता न! वह याद ही नहीं करना होता।
यानी भगवान याद कब आते हैं? कि भगवान अपने पर कुछ कपा दिखाएँ, हमें कुछ सुख दें, तब याद आते हैं। एक आदमी मुझे कहता है कि, 'मुझे पत्नी के बिना अच्छा ही नहीं लगता।' अरे, किस तरह? पत्नी