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________________ पाप-पुण्य पाप-पुण्य तो हम धर्म करेंगे किस तरह? क्रेडिट हो तो एक ओर शांति रहेगी, इसलिए हम धर्म कर सकेंगे। प्रश्नकर्ता : कौन-से कर्म करने से पुण्य होता है और कौन-से कर्म करने से धर्म होता है? दादाश्री : ये सभी जीव, मनुष्य, पेड़-पौधे, गाय-भैंस, फिर पशुपक्षी, जलचर वे सभी जीव सुख खोजते हैं। और दुःख किसीको पसंद नहीं है। इसीलिए आपके पास जो कुछ सुख है, वह दूसरे लोगों को आप दो तो आपके खाते में क्रेडिट होता है, पुण्य बँधता है और दूसरों को दुःख दो तो पाप बँधता है। प्रश्नकर्ता : तो धर्म किसे कहा जाता है? दादाश्री : यदि कोई दु:खी होता हो, उसे सुख दें, उससे पुण्य बँधता है और परिणाम स्वरूप वैसा सुख हमें भी मिलता है। किसीको दुःख दो, तो आपको दु:ख मिलता है। आपको पसंद आए वह देना। दो प्रकार के पुण्य हैं। एक पुण्य से भौतिक सुख मिलते हैं और दूसरा एक ऐसे प्रकार का पुण्य है कि जो हमें 'सच्ची आजादी' प्राप्त करवाता है। वे दोनों माने जाते हैं कर्म ही! प्रश्नकर्ता : पाप और कर्म एक ही हैं या अलग? दादाश्री : पुण्य और पाप दोनों ही कर्म कहलाते हैं। परन्तु पुण्य का कर्म काटता नहीं है और पाप का कर्म अपनी धारणा के अनुसार होने नहीं देता और काटता है। जब तक ऐसी मान्यता है कि 'मैं चंदूलाल हूँ,' तब तक कर्म बँधते ही रहते हैं। दो प्रकार के कर्म बँधते हैं। पुण्य करे तो सदभावना कर्म बाँधता है और पाप करे तो दुर्भावना कर्म बाँधता है। जब तक हक़ का और अणहक़ (जो अपने हक़ का नहीं हो) का विभाजन नहीं हुआ है, तब तक लोगों का देखे वैसा वह भी उल्टा सीख जाता है। मन में अलग होता है, वाणी में कुछ तृतीयम् ही बोलता है और वर्तन में तो और ही तरह का होता है। इसलिए निरे पाप ही बँधते हैं। इसलिए अभी लोगों को पाप की ही कमाई होती है। पुण्य-पाप, वह व्यवहार धर्म प्रश्नकर्ता : तो पुण्य और धर्म में क्या अंतर है? दादाश्री : पुण्य, वह व्यवहार धर्म है, सच्चा धर्म नहीं है। व्यवहार धर्म अर्थात् खुद सुखी होने के लिए। पुण्य अर्थात् क्रेडिट । इससे हम सुखी हो सकेंगे, क्रेडिट हो तो हम चैन से रह सकेंगे और तब अच्छी तरह से धर्म हो सकेगा। और पाप अर्थात् डेबिट। पुण्य नहीं हो, क्रेडिट नहीं हो, दादाश्री: धर्म अर्थात् आत्मधर्म। आत्मा का खुद का धर्म। पाप और पुण्य दोनों अहंकार के धर्म हैं। अहंकार हो तब तक पाप और पुण्य होते हैं। अहंकार जाए तब पाप और पुण्य जाते हैं, तो आत्मधर्म होता है। आत्मा को जानना पड़ेगा, तब ही आत्मधर्म होगा। पुण्य-पाप से परे, रियल धर्म रिलेटिव धर्म क्या कहते हैं? अच्छा करो और बुरा मत करना। अच्छा करने से पुण्य बँधता है और बुरा करने से पाप बँधता है। पूरी जिन्दगी का बहीखाता सिर्फ पुण्य से ही नहीं भरता है। किसीको गाली दी तो पाँच रुपये उधारी और धर्म किया तो सौ रुपये जमा होते हैं। पाप-पुण्य का जोड़ना-घटाना नहीं होता है। यदि ऐसा होता तो ये करोडपति पाप जमा ही नहीं होने देते। पैसे खर्च करके उधारी उड़ा देते। परन्तु यह तो असल न्याय है। उसमें तो जिस समय जिसका उदय आए, तब वह सहना पड़ता है। पुण्य से सुख मिलता है और पाप के फल का उदय आए तब कड़वा लगता है। फल तो दोनों चखने ही पड़ते हैं। भगवान क्या कहते हैं कि, तुझे जो फल चखना पसाता हो, उसका
SR No.009596
Book TitlePap Punya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages45
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size268 KB
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