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पाप-पुण्य यह पुण्य और पाप कहलाता है। सुख चाहिए तो सुख दो, उससे क्रेडिट जमा होगा और दुःख चाहिए तो दुःख दो, उससे डेबिट जमा होगा। उनका फल आपको चखना पड़ेगा।
पाप-पुण्य पाप-पुण्य की न मिले कहीं भी ऐसी परिभाषा प्रश्नकर्ता : पाप और पुण्य भला क्या चीज़ है?
दादाश्री : पाप और पुण्य का अर्थ क्या है? क्या करें तो पुण्य होगा? पुण्य-पाप का उत्पादन कहाँ से होता है? तब कहें, 'यह जगत् जैसा है वैसा जाना नहीं है लोगों ने, इसलिए खुद को जैसा ठीक लगे वैसा बरतते हैं। अर्थात् किसी जीव को मारते हैं, किसीको दुःख देते हैं, किसीको त्रास पहुँचाते हैं।'
किसी भी जीव मात्र को कोई भी त्रास पहुँचाना या दुःख देना, उससे पाप बँधता है। क्योंकि गॉड इज इन एवरी क्रीचर वेदर विज़िबल और इन्विज़िबल। (आँख से दिखें वैसे या नहीं दिखें वैसे, प्रत्येक जीव मात्र में भगवान हैं।) इस जगत् के लोग, हर एक जीव मात्र भगवान स्वरूप ही है। यह पेड़ है, उसमें भी जीव है। अब ऐसे तो लोग मुँह से बोलते ज़रूर हैं कि सभी में भगवान है, पर वास्तव में उसकी श्रद्धा में नहीं है। इसलिए पेड़ को काटते हैं, ऐसे ही बिना काम के तोड़ते रहते हैं, इसलिए सब नुकसान करते हैं। जीव मात्र को कुछ भी नुकसान पहुँचाना, उससे पाप बँधता है और किसी भी जीव को कुछ भी सुख देना, उससे पुण्य बँधता है। आप बगीचे में पानी छिड़कते हो तब जीवों को सुख होता है या दुःख? वह सुख देते हो, उससे पुण्य बँधता है। बस, इतना ही समझना है।
पूरे जगत् के जो धर्म हैं, उन्हें सार रूप में यदि कहना हो तो एक ही बात समझा दें सभी को, कि यदि आपको सुख चाहिए तो दूसरे जीवों को सुख दो और दुःख चाहिए तो दु:ख दो। जो अनुकूल हो वह करो,
अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य के आधार पर कभी-कभी संयोग अच्छे आते हैं क्या? प्रश्नकर्ता : अच्छे भी आते हैं।
दादाश्री : उन बुरे और अच्छे संयोगों को कौन भेजता होगा? अपने ही पुण्य और पाप के आधार पर संयोग आ मिलते हैं। ऐसा है, इस दुनिया को कोई चलानेवाला नहीं है। यदि कोई चलानेवाला होता तो पाप-पुण्य की ज़रूरत नहीं थी।
प्रश्नकर्ता : इस जगत् को चलानेवाला कौन है?
दादाश्री : पुण्य और पाप का परिणाम । पुण्य और पाप के परिणाम से यह जगत् चल रहा है। कोई भगवान नहीं चलाते हैं। कोई इसमें हाथ नहीं डालता है।
पुण्य प्राप्ति की सीढ़ियाँ प्रश्नकर्ता : अब पुण्य अनेक प्रकार के हैं, तो किस-किस प्रकार के कार्य करें तो पुण्य कहलाएँगे और पाप कहलाएँगे?
दादाश्री : जीव मात्र को सुख देना, उसमें फर्स्ट प्रेफरेन्स (प्रथम महत्व) मनुष्य। मनुष्यों का हो गया तब फिर दूसरा प्रेफरेन्स पँचेन्द्रिय जीव। तीसरे प्रेफरेन्स में चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, एक इन्द्रिय इस प्रकार से उन्हें सुख दें, उससे ही पुण्य होता है और उन्हें दुःख दें, उससे पाप होता है।
प्रश्नकर्ता : भौतिक सुख मिलते हैं, उन्होंने किस प्रकार के कर्म किए हों तो वे मिलते हैं?