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पाप-पुण्य
दादाश्री : जो आए उसे 'आओ भाई, बैठो।' ऐसे आव-भगत करें। अपने पास चाय हो तो चाय और नहीं तो जो हो वह, पराठे का टुकड़ा हो तो वह दे दें। पूछे कि, 'भाई, पराठा थोडा लोगे?' इस तरह प्रेम से व्यवहार करें तो पुण्य इकट्ठा होता है। पराये के लिए करना, उसका नाम पुण्य। घर के बच्चों के लिए तो हरकोई करता है।
प्रश्नकर्ता : पुण्य की वृद्धि हो, उसके लिए क्या करें?
दादाश्री : पूरा दिन लोगों पर उपकार ही करते रहें। ये मनोयोग, वाणीयोग और देहयोग लोगों के लिए खर्च करे, वह पुण्य कहलाता है।
पुण्य-पाप, पति-पत्नी के बीच में... प्रश्नकर्ता : पति-पत्नी दोनों लगभग पूरा समय साथ-साथ होते हैं, उनका व्यवहार यानी उनके कर्म भी साथ में बँधे हुए होते हैं, तो उनके फल उन्हें किस प्रकार भोगने होते हैं?
दादाश्री : फल तो आपका भाव जैसा हो वैसा आपको फल भोगना होता है और उनका भाव हो वैसा उन्हें फल भोगना होता है।
प्रश्नकर्ता : ऐसा होता है कि पत्नी के पुण्य से पुरुष का चलता है? कहते हैं न पत्नी के पुण्य से, यह लक्ष्मी है या घर में सब अच्छा है, ऐसा होता है क्या?
दादाश्री : वह तो अपने लोग, एक कोई व्यक्ति पत्नी को बहुत मारता था न, तो उसे समझाया कि मुए, यह तेरी पत्नी का नसीब तो देख, किसलिए मारता है? उसके पुण्य का तो तू खाता है। उसके बाद बात शुरू हो गई। जीव मात्र खुद के पुण्य का ही खाता है। हरकोई खुद के पुण्य का ही भोगता है। किसीको कुछ लेना-देना ही नहीं है फिर। एक किंचित् बाल जितनी भी झंझट नहीं है।
प्रश्नकर्ता : ऐसे दान करें, कोई शभ कर्म करें. उदाहरण के रूप में पुरुष दान करें, स्त्री उसमें सहमत हो, उसका सहयोग हो, तो दोनों को फल मिलता है?
पाप-पुण्य दादाश्री : पुरुष अर्थात् करनेवाला और सहयोग हो अर्थात् कर्ता के प्रति अनुमोदन करनेवाला। करनेवाला, करवानेवाला और कर्ता के प्रति अनुमोदन करनेवाला, किसीने आपसे कहा हो कि यह करना, करने जैसा है, तो वह करवानेवाला कहलाता है, आप करनेवाले कहलाते हो और स्त्री आपत्ति नहीं उठाए तो वह कर्ता के प्रति अनुमोदन करनेवाली कहलाती है। इन सभी को पुण्य प्राप्त होता है। पर करनेवाले के हिस्से में पचास प्रतिशत और पचास प्रतिशत अनुमोदना करनेवाले के हिस्से में, उन दो लोगों में बंट जाता है।
प्रश्नकर्ता : बहनजी कहती हैं, हमें पच्चीस प्रतिशत दो, तो वह नहीं चलेगा।
दादाश्री : फिर खुद करो। घर के लोग तो मालिक (पति) से कहते हैं कि यह आप उल्टा-सीधा करके पैसे लाओ तो उसका पाप आपको लगेगा, हमें कुछ भोगना नहीं है। हमें चाहिए नहीं ऐसा। जो करे वह भुगते
और घर के लोग कहते हैं कि हमें नहीं चाहिए, यानी उन्होंने अनुमोदना नहीं की इसलिए उससे मुक्त हो गए। और ऐसा करना' कहे तो हिस्सेदार हो गया, पार्टनरशिप करनी हो तो अपनी मर्जी की बात है। उसमें कहीं डीड (लिखित) नहीं करनी पड़ती कि स्टेम्प नहीं लाना पड़ता। बिना स्टेम्प के चलता है।
'प्याले फूटें तो भी पुण्य बाँधा?' कोई कहेगा कि, 'हमें ज्ञान नहीं मिला है, समकित नहीं हुआ है, तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे दूसरा नुकसान नहीं उठाना है!' तो मैं उसे कह दूँ कि, 'यह मंत्र सीख जा, कि यदि प्याले फूट जाएँ तब बोलना कि, 'अच्छा हुआ मिटा जंजाल, अब नये प्याले लाऊँगा।' तो उससे पुण्य बँधेगा। क्योंकि चिंता करने की जगह पर उसने आनंद किया, इसलिए पुण्य बँधेगा। इतना जरा आ जाए न तो बहुत हो गया! मुझे बचपन से ही ऐसी समझ थी, किसी दिन चिंता ही नहीं की। ऐसा कुछ हो जाए तो उस घड़ी ऐसा कुछ अंदर आ ही जाता था। ऐसे सिखाने से नहीं आता था, पर तुरन्त