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पाप-पुण्य
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पाप-पुण्य है वह भले हो, पर अब तो मात्र आशय बदलकर संपूर्ण सौ प्रतिशत धर्म के लिए ही रखो।
हम अपने बुद्धि के आशय में पंचानबे प्रतिशत धर्म और जगत् कल्याण की भावना लाए हैं। अन्य किसी जगह हमारा पुण्य खर्च हुआ ही नहीं है। पैसे, मोटर, बंगला, बेटा, बेटी कहीं भी नहीं।
हमें जो-जो मिले और ज्ञान लेकर गए, उन्होंने दो-पाँच प्रतिशत धर्म के लिए, मुक्ति के लिए रखे थे। इसलिए हम मिले। हमने परे सौ प्रतिशत धर्म में डाले थे, इसलिए हमें सभी ओर हमें धर्म के लिए 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' मिला है।
प्रश्नकर्ता : बुद्धि का आशय ज़रा विशेष रूप से समझाइए न, दादा।
दादाश्री : बुद्धि का आशय मतलब 'हमें बस चोरी करके ही चलाना है। काला बाजार करके ही चलाना है। कोई कहेगा, 'हमें चोरी कभी भी नहीं करनी है।' कोई कहेगा, 'मुझे ऐसा भोग लेना है, वह वैसा भोग लेने के लिए एकांत की जगह भी तैयार कर देता है। उसमें फिर पाप-पुण्य काम करता है। जो कुछ भोगने की इच्छा की होती है, वैसा सब उसे मिल आता है। मानने में नहीं आए वैसा सब भी उसे मिल जाता है। क्योंकि उसकी बुद्धि के आशय में था और पुण्य काम करे तो कोई उसे पकड़ भी नहीं सकता, चाहे जितने पहरे लगाए हों तो भी! और पुण्य पूरा हो जाए, तब यों ही पकड़ा जाता है। छोटा बच्चा भी उसे ढूंढ निकालता है कि, 'ऐसा घोटाला है इधर!'
दो चोर चोरी करते हैं, उसमें से एक पकड़ा जाता है और दूसरा आज़ाद छूट जाता है, वह क्या सूचित करता है? चोरी करनी है वैसा, बुद्धि के आशय में तो दोनों ही चोरी लाए थे। पर उनमें जो पकड़ा गया, उसका पापफल उदय में आया और उदय में आकर खर्च हो गया। जब कि दूसरा जो छूट गया, उसका पुण्य उसमें खर्च हो गया। वैसे ही हर एक के बुद्धि के आशय में जो होता है, उसमें पाप और पुण्य कार्य करते हैं। बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है वैसा भरकर लाया, उसमें उसका पुण्य काम में आए तो लक्ष्मी का ढेर लग जाता है। दूसरा बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है वैसा लेकर तो आया, पर उसमें पुण्य काम आने के बदले पापफल सामने आया। उसे लक्ष्मीजी मुँह भी नहीं दिखातीं। अरे, यह तो इतना अधिक चोखा हिसाब है कि किसीका जरा भी चले वैसा नहीं है। जब कि ये अक्कर्मी मान लेते हैं कि मैं दस लाख रुपये कमाया। अरे, यह तो पुण्य खर्च हुआ और वह भी उल्टे रास्ते। उसके बदले तेरा बुद्धि का आशय बदल। धर्म के लिए ही बुद्धि का आशय बाँधने जैसा है। ये जड़ वस्तुएँ मोटर, बंगले, रेडियो उन सभी की भजना की, सिर्फ उसके लिए ही बुद्धि का आशय बाँधने जैसा नहीं है। धर्म के लिए ही - आत्मधर्म के लिए ही बुद्धि का आशय रखो। अभी आपको जो प्राप्त
अनंत जन्मों से मोक्ष का नियाणां (अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना) किया है, परन्तु परा पक्का नियाणां नहीं किया है। यदि मोक्ष के लिए ही पक्का नियाणां किया हो तो सभी पुण्य उसमें ही खर्च हो। आत्मा के लिए जीएँ वह पुण्य है और संसार के लिए जीएँ तो निरा पाप है।
पसंद, पुण्य के बटवारे की... इसलिए यह पुण्य है न, वह हम जैसी माँग करें न उसमें बंट जाता है। कोई कहेगा, मुझे इतनी शराब चाहिए, ऐसा चाहिए, वैसा चाहिए। तो उसमें बंट जाता है। कोई कहेगा, मुझे मोटर चाहिए, और घर। तब कहे, दो रूम होंगे तो चलेगा। दो रूम का उसे संतोष होता है और मोटर चलाने को मिलती है।
इन लोगों को संतोष रहता होगा, छोटी-छोटी झोंपड़ियों में रहते हैं उन सभी को? खरा संतोष। इसलिए तो उन्हें वह घर पसंद आता है। वैसा हो तभी अच्छा लगता है। अभी उस आदिवासी को अपने यहाँ पर लाकर देखो। चार दिन रखकर देखो? उसे चैन नहीं पड़ेगा इसमें। क्योंकि उसका बुद्धि का आशय है और उसके अनुसार पुण्य का डिविजन होता है। टेन्डर के अनुसार आइटम मिलता है।