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पाप-पुण्य
पाप-पुण्य यहाँ नहीं देखा जाता। वह तो वेदनीय क्या भोगा? शाता या अशाता, उतना ही हमारे यहाँ पर देखा जाता है। रुपये नहीं हों तो भी शाता भोगेगा और रुपये होंगे तो भी अशाता भोगेगा। इसलिए शाता या अशाता वेदनीय भोगता है, वह रुपयों पर आधारित नहीं रहता।
सच्चा धन सुख देता है। दस लाख रुपये पिता ने बेटे को दिए हों और पिता कहेंगे कि 'अब मैं अध्यात्मिक जीवन जीऊँगा।' तब वह बेटा हमेशा शराब में, माँसाहार में, शेयरबाज़ार में, सभी में वह पैसा खो देता है। क्योंकि जो पैसे गलत रास्ते इकट्ठे होते हैं, वे खुद के पास रहते नहीं है। आज तो सच्चा धन भी-सच्ची मेहनत का भी धन रहता नहीं है, तो गलत धन किस तरह रहेगा? इसलिए पुण्य का धन चाहिएगा, जिसमें अप्रमाणिकता नहीं हो। दानत चोखी हो, वैसा धन हो, वह सुख देगा। नहीं तो अभी दूषमकाल का धन भी पुण्य का ही कहलाता है, पर पापानुबंधी पुण्य का है, वह निरे पाप ही बँधवाता है। इसके बदले उन लक्ष्मीजी से कहें, 'आप आना ही मत, इतनी दूरी पर ही रहना। उसमें हमारी शोभा अच्छी है और आपकी भी शोभा बढ़ेगी।' ये बंगले बनते हैं, वे सभी पापानुबंधी पुण्य खुला दिखता है। उसमें यहाँ कोई होगा, हजार में एकाध व्यक्ति कि जिसका पुण्यानुबंधी पुण्य होगा। बाक़ी, ये सभी पापानुबंधी पुण्य हैं। इतनी लक्ष्मी तो होती होगी कभी? निरे पाप ही बाँधते हैं, ये तो तिर्यंच की रिटर्न टिकट लेकर आए हुए हैं।
एक मिनट भी रहा नहीं जाए वैसा यह संसार, जबरदस्त पुण्य होता है तो भी भीतर अंतरदाह कम नहीं होता, अंतरदाह निरंतर जलता ही रहता है। अंतरदाह किसलिए होता है? अंतरदाह पाप-पुण्य के अधीन नहीं है। अंतरदाह 'रोग बिलीफ़' के अधीन है। चारों ओर से सारे फर्स्ट क्लास संयोग हों, तो भी अंतरदाह रहा ही करता है। वह अब कैसे मिटे? पुण्य भी अंत में खतम हो जाएँगे। दुनिया का नियम है कि पुण्य खतम हो जाते हैं। तब फिर क्या होगा? पाप का उदय होगा। यह तो अंतरदाह है और पाप के उदय के समय बाहर का दाह खड़ा होगा। उस घड़ी तेरी क्या
दशा होगी? इसलिए सचेत हो जाओ, ऐसा भगवान कहते हैं।
पुण्य से ही प्राप्त पैसा प्रश्नकर्ता : इस समय में तो पापी के पास ही पैसा है।
दादाश्री : पापी के पास नहीं है। मैं आपको समझाता हूँ ठीक से। आप मेरी बात समझो एक बार कि पुण्य के बिना तो पैसा आपको छुएगा तक नहीं। काले बाजार का भी नहीं छुएगा या सफेद बाजार का भी नहीं छुएगा। पुण्य के बिना तो चोरी का भी पैसा हमें नहीं छुएगा। पर वह पापानुबंधी पुण्य है। आप कहते हो वह पाप, वह अंत में पाप में ही ले जाता है। वह पुण्य ही अधोगति में ले जाता है।
खराब पैसा आए तब खराब विचार आते हैं कि किसका भोग लँ. पूरा दिन मिलावट करने के विचार आते हैं, वह अधोगति में जाता है। पुण्य भोगता नहीं है और अधोगति में जाता है। इसके बदले पुण्यानुबंधी पाप अच्छा कि आज ज़रा सब्जी लाने में अड़चन पड़ती है, पर पूरा दिन भगवान का नाम तो लिया जाता है और पुण्यानुबंधी पुण्य हों, तो वह पुण्य भोगता है और नया पुण्य उत्पन्न होता है।
...तब तो परभव का भी बिगड़े प्रश्नकर्ता : आज का टाइम ऐसा है कि मनुष्य खुद का भरणपोषण पूरा नहीं कर सकता है। वह पूरा करने के लिए उसे सच्चा-झूठा करना पड़ता है, तो वह किया जा सकता है?
दादाश्री : वह तो ऐसा है न, कि उधार लेकर घी पीने जैसा है। उसके जैसा वह व्यापार है। यह गलत किए हए से तो अभी कमी पड़ती है, अभी कमी पड़ती है उसका क्या कारण है? वह पाप है इसलिए आज कमी पड़ती है। सब्जी नहीं, दूसरा कुछ नहीं। फिर भी अभी यदि अच्छे विचार आते हों, धर्म में - मंदिर जाने के, उपाश्रय में जाने के, कुछ सेवा करने के, ऐसे विचार आते हों तो आज पाप हैं, फिर भी वह पुण्य बाँध रहा है। परन्तु पाप हो और फिर से पाप बाँधे, वैसा नहीं होना चाहिए।