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पाप-पुण्य
पाप-पुण्य
दादाश्री : हमारे वहाँ 'शीकी' कहते हैं उसे। वह बाँधी हुई होती है न, बेचारे को खाना हो तो भी नहीं खा सकता। डॉक्टर ने कहा होता है कि मर जाओगे इसलिए... वैसा इन लोगों को छीका बाँधा हुआ होता
करनी है। चैन से भोगता है।' मैंने कहा, 'कुछ कहने जैसा ही नहीं है। वह उसके खुद के हिस्से का पुण्य भोग रहा है, उसमें हम किसलिए दखल करें?' तब वह मुझे कहता है कि, 'उन्हें सयाने नहीं बनाना क्या?' मैंने कहा, जगत् में जो भोगता है, वह सयाना कहलाता है। बाहर डाल दे वह पागल कहलाता है और मेहनत करता रहे वह मजदूर कहलाता है। परन्तु मेहनत करता है उसे अहंकार का रस मिलता है न! लम्बा कोट पहनकर जाता है इसलिए लोग 'सेठजी आए, सेठजी आए' करते हैं, इतना ही बस
और भोगनेवाले को ऐसा कोई सेठ-वेठ की पड़ी नहीं होती। 'हमने तो अपना भोगा उतना सच्चा' कहता है।
अभी जो है, वह लक्ष्मी ही नहीं कहलाती। यह तो पापानुबंधी पुण्यवाली लक्ष्मी है। तो पुण्य ऐसे बाँधे थे या अज्ञान तप किए थे, उसका पुण्य बँधा हुआ है। उसका फल आया है, उसमें लक्ष्मी आई। यह लक्ष्मी व्यक्ति को पागल-बावरा बना देती है। इसे सुख कैसे कहा जाए? सुख तो, पैसे का विचार ही नहीं आए, वह सुख कहलाता है। हमें तो वर्ष में एकाध बार विचार आता है कि जेब में पैसे हैं या नहीं?
अर्थात् निरी नर्क की वेदना भोग रहे हैं। मैं सभी सेठों के वहाँ गया हुआ हूँ। फिर यहाँ पर दर्शन करवाता है, तब कुछ शांति होती है। मैं कहता हूँ दादा भगवान का नाम लेते रहना। क्योंकि ज्ञान तो उनके हिसाब में आता ही नहीं है। उनके लिए व्यवस्था करें न तो भी आ ही नहीं सकता। इसलिए महादुःख है वह तो।
पुण्यशाली ही भोगना जानता है लक्ष्मी मनुष्य को मज़दूर बनाती है। यदि लक्ष्मी ज़रूरत से ज्यादा आ जाए, तब फिर मनुष्य मजदूर जैसा हो जाता है। उसके पास लक्ष्मी अधिक है पर साथ-साथ वह दानेश्वर हैं, इसलिए अच्छा है। नहीं तो मजदूर ही कहलाएगा न! और पूरा दिन कड़ी मजदूरी ही करता रहता है, उसे पत्नी की भी नहीं पड़ी होती, बच्चों की नहीं पड़ी होती, किसीकी भी नहीं पड़ी होती है, सिर्फ लक्ष्मी की ही पड़ी होती है। इसलिए लक्ष्मी मनुष्य को धीरे-धीरे मज़दूर बना देती है और फिर उसे तिर्यंच गति में ले जाती है। क्योंकि पापानुबंधी पुण्य है न! पुण्यानुबंधी पुण्य हो तब तो हर्ज नहीं है। पूण्यानुबंधी पुण्य किसे कहते हैं कि परे दिन में आधा घंटा ही मेहनत करनी पड़े। वह आधे घंटे मेहनत करे तो भी सारा काम सरलता से धीरेधीरे चलता रहता है।
यह जगत् तो ऐसा है। उसमें भोगनेवाले भी होते हैं और मेहनत करनेवाले भी होते हैं, सब मिलाजुला होता है। मेहनत करनेवाले ऐसा समझते हैं कि 'यह मैं कर रहा हूँ।' उसका उनमें अहंकार होता है। जब कि भोगनेवाले में अहंकार नहीं होता, तब उन्हें भोक्तापन का रस मिलता है। उस मेहनत करनेवाले को अहंकार का गर्वरस मिलता है।
एक सेठ मुझे कहता है, 'मेरे बेटे को कुछ कहिए न, मेहनत नहीं
प्रश्नकर्ता : बोझ जैसा लगता है?
दादाश्री : नहीं, बोझ तो हमें होता ही नहीं। पर हमें वह विचार ही नहीं होता न! किसलिए विचार करें? सब आगे-पीछे तैयार ही होता है। जैसे खाने-पीने का आपके टेबल पर आता है या नहीं आ जाता?
भुगतान, रुपयों का या वेदनीय का? यह तो जिसे पत्थर लगा उसकी ही भूल। भुगते उसकी भूल सिर्फ उतना ही नहीं पर भुगतने का इनाम भी है। पाप का इनाम मिले तो वह उसके बुरे कर्तव्य का दंड और फूल चढ़ें तो वह उसके अच्छे कर्तव्य के पुण्य का इनाम, फिर भी दोनों भुगतान ही है, अशाता का अथवा शाता का।
कुदरत क्या कहती है? उसने कितने रुपये खर्च किए. वह हमारे