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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार
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दादाश्री : बाज़ार में दूसरी माँ नहीं मिलती ? और मिले तब भी किस काम की? गोरी पसंद हो फिर भी हमारे लिए किस काम की? अब जो है वह अच्छी । दूसरों की गोरी माँ देखकर 'हमारी बुरी है' ऐसा नहीं कहना चाहिए। 'मेरी माँ तो बहुत अच्छी है' ऐसा कहना चाहिए।
प्रश्नकर्ता: पापा का क्या मानना चाहिए?
दादाश्री : पापा का ? वे जिससे खुश रहे ऐसा व्यवहार उनके साथ रखना। खुश रखना नहीं आता? वे खुश रहें ऐसा करना ।
माता-पिता यानी माता - पिता । इस संसार में सर्व प्रथम सेवा करने योग्य कोई हो तो वे माता-पिता है। उनकी सेवा करेगा?
प्रश्नकर्ता: हाँ, सेवा जारी ही है। घर काम में मदद करता हूँ । दादाश्री : शान्ति का क्या करोगे? जीवन में शांति लानी है कि नहीं लानी ?
प्रश्नकर्ता : लानी है।
दादाश्री : ला दें, पर किसी दिन माता-पिता की सेवा की है? मातापिता की सेवा करें, तो शान्ति नहीं जाती। पर आज-कल सच्चे दिल से माता-पिता की सेवा नहीं करते। पच्चीस-तीस साल का हुआ और 'गुरु' (पत्नी) आये, तब कहती है कि मुझे नये घर ले जाइए। आपने 'गुरु' देखे हैं? पच्चीस-तीस साल की उम्र में 'गुरु' मिल जाते हैं और 'गुरु' मिलने पर सब कुछ बदल जाता है। गुरु कहे कि माँजी को आप जानते ही नहीं। वह पहली बार ध्यान नहीं देता। पहली बार तो अनसुना कर देता है, पर दो-तीन बार कहे तो फिर धीरे धीरे भ्रमित हो जाता है।
माता-पिता की जो शुद्ध भाव से सेवा करें तो उन्हें कभी अशान्ति न हो ऐसा जगत् है। यह जगत् नजरअंदाज करने जैसा नहीं है। तब लोग प्रश्न करते हैं कि लड़के का ही दोष है न! लड़के माता-पिता की सेवा नहीं करते, उसमें माता-पिता का क्या दोष? मैंने कहा, 'उन्होंने माता-पिता
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की सेवा नहीं की थी, इसलिए उन्हें प्राप्त नहीं होती।' यह परंपरा ही गलत है। अब नये सिरे से परंपरा से हटकर चलें तो अच्छा होगा।
बुजुर्गों की सेवा करने पर हमारा विज्ञान विकसित होता है। क्या मूर्तियों की सेवा हो सकती है? मूर्तियों के पैर थोड़े ही दुःखते हैं? सेवा तो अभिभावक, बुजुर्गों अथवा गुरुजन हों, उनकी करनी होती है।
माता-पिता की सेवा करना धर्म है। हिसाब कैसा भी हो पर सेवा करना हमारा धर्म है। हमारे धर्म का जितना पालन करेंगे, उतना सुख हमें प्राप्त होगा। बुजुर्गों की सेवा तो होगी ही, पर साथ में हमें सुख भी प्राप्त होगा। माता-पिता को सुख दें, तो हमें सुख मिलेगा। माता-पिता की सेवा करनेवाला मनुष्य कभी दुःखी होता ही नहीं ।
एक भाई मुझे एक बड़े आश्रम में मिल गए। मैंने उनसे पूछा, 'आप यहाँ कैसे?' तब उन्होंने कहा, 'मैं इस आश्रम में पिछले दस साल से रहता हूँ।' तब मैंने उनसे कहा, 'आपके माता-पिता गाँव में अंतिम अवस्था में बहुत गरीबी में दुःखी हो रहे हैं।' तब उन्होंने कहा, 'उसमें मैं क्या करूँ? मैं उनकी और ध्यान दूँ, तो मेरा धर्म रह जायेगा।' इसे धर्म कैसे कहेंगे? धर्म तो वह कि माता-पिता की खबर रखें, भाईयो को बुलायें, सभी को बुलाये । व्यवहार आदर्श होना चाहिए। जो व्यवहार खुद के धर्म का तिरस्कार करे, माता-पिता के संबंध को भी दुतकारे, उसे धर्म कैसे कह सकते हैं?
मैंने भी माँ की सेवा की थी। बीस साल की अर्थात् युवाकाल की उम्र थी। अतः माताजी की सेवा हुई। पिताजी को कंधा दिया था, उतनी ही सेवा हुई थी। फिर हिसाब समझ में आया कि ऐसे तो कईं पिताजी (पिछले जन्मों) हो गए। अब क्या करेंगे? जवाब मिला, 'जो हैं उनकी सेवा कर।' फिर जो गए वो गए। पर अभी जो है उनकी सेवा कर। अगर ऐसा कोई हो तो ठीक, नहीं हो तो चिंता मत करना। ऐसे तो बहुत हो गए। जहाँ भूले वहाँ से फिर गिनो। माता-पिता की सेवा, प्रत्यक्ष है। भगवान कहाँ दिखते हैं? भगवान दिखाई नहीं देते, ये माता-पिता तो दिखाई देते हैं।