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माता-पिता और बच्चों का व्यवहार जैसी नहीं है, क्लेश करने के बजाय मौन रहना उत्तम होगा। क्लेश से तो खुद का और सामनेवाले का भी दिमाग बिगड़ जाता है।
वे तुम्हें बुरा कहें, तुम उन्हें बुरा कहो! फिर वातावरण दूषित होता जाता है और विस्फोट होता है। इसलिए तुम उन्हें अच्छे से कहना। किस दृष्टि से? एक दृष्टि मन में रख लो कि 'आफ्टर ऑल ही इज ए गुड मेन (आखिरकार तो वह अच्छा आदमी है)।'
प्रश्नकर्ता : टकराव हो तब बच्चों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए?
माता-पिता और बच्चों का व्यवहार ही, हम अपनी भूल खत्म कर दें। उसको ठीक लगा वैसा बोला। हमारे बुरे कर्मों का उदय हो तभी ऐसा उल्टा उससे बोला जाता है।
बच्चों का अहंकार जागृत हो, उसके बाद उसे कुछ नहीं कह सकते और हम कहें भी क्यों? उन्हें ठोकर लगेगी तो सीखेंगे। बच्चे पाँच साल के हों, तब तक उन्हें कहने की छूट। और पाँच से सोलह सालवाले बच्चे को शायद कभी थप्पड़ भी लगानी पड़े। मगर बीस साल का जवान होने के बाद ऐसा नहीं कर सकते। उसे एक अक्षर भी नहीं बोल सकते। उसे कुछ भी बोलना गुनाह होगा। वर्ना तो किसी दिन आपको बन्दूक भी मार दे।
'बिन माँगी सलाह मत देना' ऐसा हमने लिखा भी है! अगर कोई हमसे कुछ पूछे, तब हमें सलाह देनी चाहिए और उस समय जो ठीक लगता हो वह कह देना। सलाह देने के बाद यह भी कहना कि तुम्हें ठीक लगे वैसा करना। हम तो तुम्हें यह कह चुके। इसलिए फिर उन्हें बुरा लगे ऐसी कोई बात नहीं रहती। अतः हमें जो कुछ भी कहना है, उसके पीछे विनय रखना है।
इस काल में कम बोलने जैसा दुसरा कुछ भी नहीं है। इस काल में बोल पथ्थर लगें, ऐसे निकलते हैं और सबके ऐसे होते हैं। इसलिए मितभाषी हो जाना अच्छा है। किसी को कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से और बिगड़ेंगे। उससे कहें कि 'गाड़ी पर जल्दी जा।' तब देर से जाएगा
और कुछ नहीं कहोगे तो समय पर जाएगा। हम नहीं हों तो भी सब चले ऐसा है। यह तो खुद का गलत अहंकार है। जिस दिन से बच्चों के साथ तुम्हारी झिकझिक बंद होगी, उस दिन से बच्चे सुधरने लगेंगे। तुम्हारे शब्द अच्छे निकलते नहीं, इसलिए सामनेवाला अकुलाता है। तुम्हारे शब्द स्वीकार नहीं होते और उल्टे वे शब्द पलटकर वापस आते हैं। हम तो बच्चों को खाना-पीना बनाकर दें और हमारा फर्ज निभायें, दूसरा कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से फायदा नहीं, ऐसा आपको लगता है? बच्चे बड़े हो गए हैं, वे क्या सीढ़ियों से गिर पड़ेंगे? तुम अपना आत्मधर्म क्यों चूक रहे हो? इन बच्चों के साथ तो रिलेटिव धर्म है। वहाँ भेजाफोडी करने
दादाश्री : राग-द्वेष नहीं होना चाहिए। उसने कुछ बिगाड़ा हो, कुछ नुकसान किया हो, तब भी उस पर द्वेष नहीं होना चाहिए। उसे 'शद्धात्मा' के रूप में देखना चाहिए। अर्थात् राग-द्वेष नहीं हुआ तो सब निराकरण हो गया और अपना ज्ञान राग-द्वेष न होने दे ऐसा है।
अपने मन में जरा-सी भी दुविधा हो तो वह दूसरे किसी की नहीं, हमारी ही है, इसलिए हमें समझ लेना है कि यह दुविधा हमारी है। दुविधा क्यों हुई? हमें देखना नहीं आया, इसलिए। हमें 'शुद्धात्मा' ही देखना है। उलझनें खत्म करनी हैं 'मैं शुद्धात्मा हूँ', बाकी सब 'व्यवस्थित' है। ऐसा 'सोल्युशन (हल)'मैंने दिया है।
बेटे की शादी होने के बाद परेशान हों तो नहीं चलेगा, उससे पहले संभल जाओ। साथ में रखोगे तो क्लेश होगा। उसका जीवन बिगड़ेगा और साथ में हमारा भी बिगड़ेगा। अगर प्रेम पाना चाहते हो तो उससे अलग रहकर प्रेम रखो, वरना जीवन बिगाड़ोगे और इससे प्रेम घट जाएगा। उसकी पत्नी आई तब उनको साथ में रखना चाहो तो सदैव वह पत्नी का कहा मानेगा, तुम्हारा नहीं सुनेगा। उसकी पत्नी कहेगी, 'आज तो माताजी ऐसा कह रही थीं, वैसा कह रही थीं।' तब बेटा कहेगा, 'हाँ, माँ ऐसी ही हैं।' और फिर चला तूफान। दूर से सब अच्छा रहता है !
प्रश्नकर्ता : बच्चे विदेश में हैं उनकी याद आती रहती है, उनकी चिंता होती है।