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दादा भगवान?
दादा भगवान?
फ्रेश (तरो-ताजा) रहेंगे, तब आपको भी महसूस होगा कि दादाजी ने हमें फ्रेश बनाया।
विश्व में वीतराग अधिक उपकारी यदि मैं शादी में शरीफ हुआ तो शादी क्या मुझसे आ लिपटेगी? हम शादी में जाएँ मगर पूर्णतया वीतराग रह पायें। जब कभी मोहबाज़ार में जाएँ तब संपूर्ण वीतराग हो जाएँ और भक्ति के बाजार में जाने पर वीतरागता जरा कम हो जायेगी।
व्यवहार बिना तन्मयता का
शादी के, व्यावहारिक अवसरों को निबटाना पड़ता है। जो व्यावहारिक रूप से मैं भी निबटाता हूँ और आप भी निबटाया करते है, पर आप तन्मयाकार होकर निबटाते हैं और मैं उनसे अलग रहकर निबटाता हूँ। अर्थात् भूमिका बदलने की जरूरत है, और कुछ बदलना जरूरी नहीं है।
ज्ञानी बरतें प्रकट आत्म-स्वरूप होकर प्रश्नकर्ता : इन तीन दिनों से मेरे मन में एक ही विचार मंडरा रहा है कि आप पचहत्तर साल की उम्र में सबेरे से शाम तक यों ही बैठे हैं
और मुझे डेढ़ घंटे में कितनी ही बार हिलना-डुलना पड़ता है, तब आप में ऐसी कौन-सी शक्ति काम कर रही है?
दादाश्री : यह शरीर ज़रूर पुराना है, पर भीतर में सब कुछ जवान है। इसलिए एक ही जगह बैठकर दस घंटों तक मैं बोल सकता हूँ। इन लोगों ने यह देखा है। क्योंकि यह देह भले ही ऐसी नज़र आये, पचहत्तर की असरवाली, बालों को भी असर हुआ है पर भीतर सब कुछ युवा है। इसलिए इस शरीर में जब कोई बिमारी आये तब लोगों से कहता हूँ कि, 'भड़कना नहीं, यह शरीर छूटनेवाला नहीं है। भीतर तो अभी जवान है सब।' ताकि उनकी स्थिरता बनी रहे। क्योंकि हमारी अंदरूनी स्थिति अलग है। एक मिनट के लिए भी मैं थकता नहीं हूँ। इस समय भी रात साढ़े तीन बजे तक हमारे साथ बैठनेवाला चाहिए (यानी उसके साथ सत्संग चलता रहे)।
बाकी वैसे हमारी फ्रेशनेस (ताज़गी) कभी गई नहीं है। आप भी
प्रश्नकर्ता : दादाजी, उम्र तो हो गई है आपकी, फिर भी...
दादाश्री : फिर भी! उम्र तो इस देह की हुई है न, हमारी कहाँ उम्र होनेवाली है? और दूसरा क्या होता है कि आप सभी को सायकोलॉजिकल इफेक्ट होता है। हमें किसी प्रकार का ऐसा सायकोलॉजिकल इफेक्ट नहीं होता कि 'मुझे बुखार आया है। किसी के पूछने पर मुँह से ऐसा कहेंगे, पर बाद में फिर उसे मिटा देते हैं। इतनी हमारी जागृति होती है। 'मैं' 'खुद' में और 'पटेल' जगत कल्याण की विधि में
बहुधा 'मैं' मूल स्वरूप में रहता हूँ, माने पड़ोसी के तौर पर रहता हूँ। और थोड़े से ही टाईम के लिए इसमें से (स्वरूप में से) बाहर आता हूँ। मूल स्वरूप में रहने के कारण फिर फ्रेशनेस ज्यों की त्यों बनी रहेगी। रात में भी ज्यादातर सोया ही नहीं हूँ। पाव घंटा जरा झपकी आ जाएँ उतना ही, दो वक्त मिलाकर पाव घंटा, बाकी तो केवल आँखे मुँदी हुई होती हैं। इन कानों से जरा कम सुनाई देता है ताकि लोग समझें कि दादाजी को नींद लग गई है और मैं भी समझू कि जो समझते हैं ठीक है। मुझे विधियाँ करनी होती हैं, इसलिए मैं खुद में और ए.एम.पटेल विधियों में होते हैं। अर्थात् इस संसार का कल्याण कैसे हो, उसकी सारी विधियाँ किया करें। माने वे निरंतर विधिरत होते हैं, दिन को भी और रात को भी विधिरत होते हैं।
प्रकृति को ऐसे मोड़े ज्ञानी बाकी लोग तो ऐसा ही समझें कि दादाजी अपने कमरे में जाकर सो जाते हैं। मगर इस बात में कोई तथ्य नहीं है। पद्मासन लगाकर घंटे भर बैठता हूँ, वह भी इस सतहत्तर साल की उम्र में पद्मासन लगाकर बैठना आसान है क्या? पैर भी मोड़ सकता हूँ और उसी की वजह से आँखों की शक्ति, आँखो की रोशनी सब कुछ सुरक्षित रहा है।