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दादा भगवान?
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दादा भगवान?
सभी फेज़ीस (पहलू) का ज्ञान मैंने खोज निकाला था। हर 'फेज़ीस' में से मैं पार निकल आया हूँ और हर फेज़ीस का मैंने 'एन्ड' कर दिया है। उसके बाद यह 'ज्ञान' हुआ है।
__बोलते समय भी शुद्ध उपयोग यह हम जो कुछ बोलते हैं, वह उपयोग के साथ बोलते हैं। यह रिकार्ड बोले (मुँह से वाणी निकले), उस पर हमारा उपयोग रहेगा कि, क्या क्या भूलें हैं और क्या नहीं? स्याद्वाद में कोई गलती है, इसे हम बारीकी से देखा करते हैं और जो बोल रहे हैं वह रिकार्ड है। लोगों को भी रिकार्ड ही बोले, पर वे मन में समझें कि मैं बोला। हम निरंतर शुद्धात्मा के उपयोग में रहते हैं, आपके साथ बात करते समय भी।
बिना विधि के क्षण भी नहीं गँवाया हम तो इन बातों में क्या हो रहा है वही देखा करें। हम पलभर के लिए भी, एक मिनट भी उपयोग से बाहर नहीं होते। आत्मा का उपयोग होता ही है।
हमें विधि करनी हो और मन को जैसे ही फुरसत मिले कि तुरन्त अंदर विधि शुरू हो जाए, उस समय सहज रूप से सबको ऐसा लगे कि दादाजी इस समय किसी कार्य में व्यस्त होंगे। मूड नहीं है ऐसा तो किसी को लगे ही नहीं। किसी कार्य में कार्यरत होंगे ऐसा लगे, उतना कार्य हम कर लेते हैं। हमें जो विधि करनी होती है वह करनी शेष रह गई हो। दोपहर में सब आ धमके और नहीं हो पाई हो। तो जब यहाँ फुरसत मिले तब फिर वह भी हो जाए। और वह भी शुद्ध उपयोग के साथ ही होगी।
भोजन के समय, दादाजी का उपयोग.... भोजन के समय हम क्या करते हैं? भोजन में समय ज्यादा लगता है, खायें कम और भोजन करते-करते किसी के साथ बातचीत नहीं करते, हुड़दंग नहीं मचाते। मतलब कि भोजन में ही एकाग्र होते हैं। हम से चबाया
जाता है इसलिए हम चबा-चबाकर खायेंगे और उसका क्या स्वाद है उसे जानेंगे, उसमें लुब्धता नहीं करते। उसमें संसार के लोग लुब्धता करते हैं, जबकि हम उसे जानते हैं। कितना मजेदार स्वाद है, उसे जानते हैं कि वह ऐसा था। एक्झेक्ट (यथार्थ रूप से) जानना, स्वादमग्न होना और भुगतना। संसारी मनुष्य या तो भुगतेंगे या तो स्वादमग्न होते हैं।
हम तो ठंड में भी जब हमें शाल ओढ़ाई जाए तब जरा-सी खिसका दें। यदि ठंडी हवा लगेगी तो निंद नहीं आये, ऐसे सारी रात जागते रहें।
और यदि ठंड नहीं रही तब खाँसी आने पर जाग जाएँ, फिर उपयोग में रहें।
कितने ही सालों से हम, चाहे रात में तबीयत बिगडी हो कि रात में कुछ भी हुआ हो, सुबह एक्झेक्ट साढ़े छह बजे जाग जाते हैं। हमारे जागने पर साढ़े छह ही बजे होते हैं। वास्तव में तो हम सोते ही नहीं हैं। रात में ढाई घंटे तक हमारे भीतर विधियाँ चलती रहें। साढ़े ग्यारह तक सत्संग चले। बारह बजे सो जाएँ, आम तौर पर सोने का सुख, यह भौतिक सुख हम लेते नहीं है।
स्टॉर भी नमस्कार करे, 'इस वीतराग को'
जब अमरिका जाएँ तब हमें शोपिंग मॉल में ले जाते हैं। चलिए दादाजी' कहते है। जब हम स्टॉर में जायें तब स्टॉर बेचारा हमें बार-बार नमस्कार करता रहे, कि धन्य है आप, हम पर जरा-सी भी दृष्टि नहीं बिगाडी। सारे स्टॉर में कहीं पर भी हमारी दृष्टि नहीं बिगड़ती! हम देखते ज़रूर हैं पर दृष्टि नहीं बिगाड़ते। हमें क्या जरूरत किसी चीज़ की? कोई वस्तु मेरे काम तो आती नहीं! तेरी दृष्टि बिगड़ जाए न?
प्रश्नकर्ता : आवश्यकता हो वह चीज खरीदनी पड़े!
दादाश्री : हाँ, हमारी दृष्टि बिगड़ती नहीं। ये स्टॉर हमें दो हाथ जोड़कर नमस्कार करता रहे कि ऐसे पुरुष के आज तक दर्शन नहीं हुए! किसी प्रकार का तिरस्कार भी नहीं। फर्स्ट क्लास, राग भी नहीं, द्वेष भी नहीं, और हमको क्या कहें? वीतराग आये, वीतराग भगवान !