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दादा भगवान?
दादा भगवान?
पर गेस्ट कहेगा, 'अरे, बहुत बुरा हुआ' ऐसा नाटकीय रूप से कहेगा। बोलना तो पडेगा कि 'बहुत बुरा हुआ'। यदि हम कहें कि, 'अच्छा हुआ' तो घर से बाहर निकाल देंगे। हमें गेस्ट के तौर पर नहीं रहने देंगे।
__ आपके बगैर अच्छा नहीं लगता मैं इतनी उम्र होने के बावजूद हीराबा से कहा करता हूँ, 'मैं जब बाहर गाँव जाता हूँ, तब आपके बगैर अच्छा नहीं लगता।' अगर मैं ऐसा न कहूँ तो वह मन में क्या क्या सोचेगी? मुझे अच्छा लगता है तो उनको क्यों अच्छा नहीं लगता होगा? ऐसा कहने पर संसार बना रहता है। अब तू घी उँडेल न, नहीं उँडेलेगा तो रुखा-सुखा लगेगा। सुंदर भाव उँडेल! मैं कहता हूँ न! फिर मुझसे पूछती है, 'आपको मेरी भी याद आती है?' मैं कहूँ, 'बहुत याद आती है, दूसरे लोगों की याद आती है तो आपकी नहीं आयेगी क्या?' और याद आती भी है, नहीं आती ऐसा भी नहीं है।
कितना सँभाला होगा तब? पैंतालीस साल हो गये, हमें घर में वाइफ के साथ मतभेद नहीं हुआ है। वह भी मर्यादा में रहकर बात करेगी और मैं भी मर्यादा में रहकर बात करता हूँ। वह किसी दिन मर्यादा के बाहर की बात करें तो मैं समझ जाऊँ कि वह मर्यादा छोड़ रही है। इसलिए मैं कह दूँ कि आपकी बात ठीक है, पर मतभेद होने नहीं देता। एक मिनट के लिए उसे ऐसा महसूस नहीं होने देता कि मुझे दु:खी करते हैं। हमें भी नहीं होता कि वह हमें दुःखी करती हैं।
एक आदमी ने मुझे पूछा कि, 'वर्तमान में आपकी वाइफ के साथ आपका व्यवहार कैसा है? 'लीजिये, लाइये' कहा करते हैं? मैंने कहा. 'नहीं. 'हीराबा' कहता हूँ, वह इतनी बड़ी छिहत्तर साल की और मैं अठहत्तर का, कहीं लीजिये, लाइये' कहना शोभा देगा? में हीराबा कहकर पुकारता हूँ।' फिर वह पूछने लगा, 'आपके प्रति उन्हें पूज्यभाव है क्या?' मैंने कहा, 'मैं जब बडौदा जाता हूँ न, तब पहले विधि करने के बाद आसन लेती हैं। यहाँ चरणों से सिर लगाकर विधि करती हैं। प्रतिदिन विधि करने से नहीं
चुकतीं। किसी भी ज्ञानी की स्त्री ने ऐसे विधि नहीं की है। इन सभी ने देखा है, तब हमने उसकी कैसी देखभाल की होगी कि वह विधि करेगी!' इसका अंदाजा आपको इस बात से आ जायेगा।
विषय समाप्ति के बाद का संबोधन, 'बा'
जब से हीराबा के साथ मेरा विषय समाप्त हुआ होगा, तब से मैं 'हीराबा' पुकारता हूँ उन्हें। (दादाजी ३५ साल की उम्र में ब्रह्मचर्य में आ गये थे।) तत्पश्चात् हमें वाईफ के साथ कोई टकराव नहीं हुआ। और पहले जो टकराव था वह विषय को लेकर, सहचर्य में तो थोड़ा-बहुत टकराव होता रहता, लेकिन जहाँ तक विषय का डंक रहा वहाँ तक वह जानेवाली कहाँ? उस डंक के छूटने पर जाए। यह हमारा स्वानुभव बयान करते हैं। यह तो हमारे ज्ञान की वजह से अच्छा है, वरना यदि ज्ञान नहीं होता तब तो डंक लगते ही रहें। उस हालत में तो अहंकार होगा न! उसमें अहंकार का एक हिस्सा 'भोग' होता है कि उसने मुझे भुगत लिया और यह कहें, "उसने मुझे भुगत लिया।' और यहाँ पर (ज्ञान के पश्चात्) उसका निपटारा किया जाता है। फिर भी वह डिस्चार्जवाली किच-किच तो रहेगी ही। पर वह भी हमारे बीच नहीं थी, वैसा किसी प्रकार का मतभेद नहीं था।
(७) ज्ञानी दशा में बरते ऐसे
प्रत्येक पर्याय में से पार यह सब तो मेरी पृथक्करण की गई वस्तुएँ हैं, और वह एक अवतार का नहीं है। एक अवतार में तो इतने सारे पृथक्करण कहाँ संभव है? अस्सी साल में कितने पृथ्थकरण कर पायेंगे भला? यह तो अनेकों अवतारों का पृथक्करण है, जो आज सब प्रकट हो रहा है।
प्रश्नकर्ता : इतने सारे अवतारों का पृथक्करण इस समय इकट्ठा कैसे प्रकट होगा?
दादाश्री : आवरण टूटा इसलिए। अंदर ज्ञान तो सारा विद्यमान है ही। आवरण टूटना चाहिए न? ज्ञान तो शेष है ही, पर आवरण टूटने पर प्रकट हो जाए।