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दादा भगवान?
दादा भगवान?
वह सचमुच दु:खी है कि बनावट करता है यह देखे बगैर मैं तुरंत दे दिया करता था। मुझ से ऐसी गलतियाँ होती रहें और सामनेवाले को बिना वजह एन्करेजमेन्ट (प्रोत्साहन) मिलता रहें, ऐसा हीराबा का अनुभव था और इसलिए मैंने फिर चाबी उन्हें ही सौंप दी थी। यह सब अज्ञान दशा में होता था, ज्ञान होने के पश्चात् कभी मतभेद नहीं हुआ।
मुकर कर भी टाला मतभेद मैं आप सभी को जो यह बता रहा हूँ वह मुझ पर बिना ट्रायल लिए नहीं बताता हूँ। सारी आजमाइश करने के बाद की बातें हैं। क्योंकि ज्ञान नहीं था तब भी वाइफ के साथ मुझे मतभेद नहीं था। मतभेद माने दीवार से सिर टकराना। लोगों को भले ही इसकी समझ नहीं है पर मेरी समझ में आ गया था कि यह खुली आँख दीवार से टकराया, मतभेद की वजह से!
हुआ क्या कि, एक बार हीराबा से हमारा मतभेद हो गया। मैं भी फँसाव में आ गया। मेरी पत्नी को मैं 'हीराबा' संबोधन करता हूँ। हम ज्ञानीपुरुष ठहरे, हम सभी बुझुर्ग स्त्रियों को 'बा' (माता) कहें और बाकी सबको 'बिटियाँ' कहें। इसलिए आप बात जानना चाहते हैं तो बताता हूँ, बहुत लम्बी कहानी नहीं है, बात छोटी सी है।
एक बार हमारा भी मतभेद हो गया। मैं फँस गया। हीराबा मुझसे कहती है, 'मेरे भाई की चार बेटियाँ हैं, उनमें से सबसे बड़ी बेटी की शादी है, उसे हम चाँदी की कौन-सी चीज़ देंगे?' तब मैंने कहा, 'घर में जो भी हो दे देना।' इस पर वह क्या कहने लगी? हमारे घर में आम तौर पर 'तेरी-मेरी' शब्द का प्रयोग नहीं होता, 'हमारा-अपना' का ही प्रयोग हुआ करता है। पर उस दिन उन्होंने कहा कि, 'यह आपके मामा के बेटों को तो इतने बडे बडे चादी के थाल दिया करते हैं!' अर्थात् उस दिन बातबात में 'मेरी-तेरी' हो गई। आपके मामा के बेटे' कहा, यहाँ तक नौबत आ गई। इतनी मेरी नासमझी, ऐसा मुझे लगा। मैं तुरन्त मुकर गया। मुकर जाने में हर्ज नहीं है। मतभेद होने देने से मुकर जाना बेहतर है, इसलिए
मैं उसी क्षण मुकर गया। मैंने कहा, 'मैं ऐसा कहना नहीं चाहता, साथ में नगद पाँच सौ एक रुपया दे देना।' तब वह कहने लगे कि 'क्या?! आप तो भोले के भोले ही रहें! बहत भोले हैं! इतने सारे रुपये कोई देता है कहीं?!' देखिये जीत हुई न मेरी! मैंने कहा, 'पाँच सौ एक नगद देना और चांदी के छोटे बरतन भी देना।' तब वह क्या कहती है, 'आप भोले हैं। इतना सारा दिया जाता हैं कहीं?' देखिये, मिटा दिया न मतभेद! मतभेद तो होने ही नहीं दिया और ऊपर से उन्होंने हमसे कहा कि.'आप भोले हैं!' यह तो 'मेरे' भैया के यहाँ आप कम देते हैं यह विचार उनके मन में उठते थे, उसके बदले उन्होंने ऐसा कहा कि इतने सारे नहीं देने चाहिए।
खोटे सिक्के, भगवान के चरणों में घर में अपना चलन नहीं रखना। जो मनुष्य चलन रखता है, उसे भटकना पड़ता है। हमने भी हीराबा से कह दिया था कि हम खोटे सिक्के हैं। हमें भटकना पुसाता नहीं न! खोटा सिक्का हो वह किस काम का? वह भगवान के पास पड़ा रहेगा। घर में अपना अधिपत्य जमाने जाओगे तो टकराव होगा न? हमें अब 'समभाव से निकाल (निपटारा)' करना है। घर में वाइफ के साथ 'फ्रेन्ड' (मित्र) जैसा रहना है। वह आपकी 'फ्रेन्ड'
और आप उसके 'फ्रेन्ड'! और यहाँ कोई लिखकर नहीं रखता कि चलन तुम्हारा था कि उनका था! म्युनिसिपालिटी में भी नोट नहीं होता और भगवान के यहाँ भी नोट नहीं कीया जाता। हमें भोजन से लेना-देना है कि चलन से? इसलिए अच्छा भोजन किस प्रकार मिल पाता है इसकी तलाश कीजिये। अगर म्युनिसिपालिटीवाले नोट रखते कि घर में किसका चलन है, तब तो मैं भी एडजस्ट नहीं होता। यह तो कोई भी नोट नहीं करता है।
जब हम बडौदा जाएँ तब हमारे घर में हीराबा के गेस्ट की तरह रहते हैं। यदि घर में कुत्ता घुस आये तब हीराबा को तकलीफ होगी, 'गेस्ट'
को क्या तकलीफ? कुत्ता घुस आये और घी में मुँह डाला तो जो मालिक होगा उसें चिंता होगी, गेस्ट को क्या? गेस्ट तो यों ही देखा करे। बहुत होने पर पूछेगा कि, 'क्या हो गया?' तब कहें कि, 'घी बिगड़ गया।' इस