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दादा भगवान?
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दादा भगवान?
कैसी समझ? कैसा एडजस्टमेन्ट? हम भी यदि कढ़ी खारी आये तो कम खायेंगे या फिर कढ़ी खाये बिना नहीं चला सकें तो धीरे से उसमें थोड़ा पानी मिला दें। खारी हो गई हो तो थोड़ा पानी मिलाने पर तुरंत खारापन कम हो जायेगा। इस पर एक दिन हीराबा ने देख लिया तो वह चिल्ला उठी, 'यह क्या किया? यह क्या किया? आपने उसमें पानी डाला?' तब मैंने कहा कि, 'यह चुल्हे पर पानी उँडेल कर पकाते है तब थोड़ी देर के बाद दो उफान आते हैं न? इस पर आप समझती हैं कि पक गई और यहाँ मैंने पानी उँडेला इसलिए कच्ची है ऐसा आप समझती है मगर ऐसा कुछ भी नहीं है।' पर वह क्या ऐसे माननेवाली थी? नहीं खाने देती। चुल्हे पर भी तो पानी ही उँडेलना है न?
यह तो सारी मन की मान्यताएँ हैं। मन ने यदि ऐसा मान लिया तो ऐसा सही समझेंगे, वरना कहेंगे कि बिगड़ गया। पर कुछ बिगड़ता ही नहीं न! वही के वही पाँच तत्त्वों की बनी सारी चीजें हैं : वायु, जल, तेज, पृथ्वी और आकाश! इसलिए कुछ बिगड़ना-करना नहीं होता।
निरंतर जागृति यज्ञ से फलित 'अक्रम विज्ञान'
प्रश्नकर्ता : पर दादाजी आपने जो किया वह कितनी जागृति के साथ पानी उँडेला होगा? आप उन्हें द:ख नहीं हो इसलिए कहना नहीं चाहते थे कि, नमक ज़रा ज्यादा हो गया है इसलिए पानी उँडेला।
दादाश्री : हाँ, अरे कई बार तो चाय में शक्कर नहीं होती थी, तब भी हमने मुँह नहीं खोला था। इस पर लोग कहते कि, 'ऐसा चला लोगे तो सारा घर बिगड़ जायेगा।!' मैं कहता, 'कल देख लेना आप।' फिर दूसरे दिन वही कहे कि, 'कल चाय में शक्कर नहीं थी फिर भी आप कुछ बोले नहीं हमसे?' मैंने कहा, 'मुझे आपसे कहने की क्या ज़रूरत? आपको मालूम होनेवाला ही था! अगर आप चाय नहीं पीनेवाली तब मुझे कहने की जरूरत पड़ती। मगर आप भी चाय पीती हैं, फिर मैं क्यों आपको कहँ?'
प्रश्नकर्ता : पर कितनी जागृति रखनी पड़े पल-पल?
दादाश्री : प्रत्येक क्षण, चौबीस घंटे जागृति, उसके बाद यह ज्ञान प्राप्त हुआ था। यह ज्ञान कुछ यों ही नहीं हुआ है।
हम यह जो कुछ बोलते हैं न, वह आपके पूछने पर उस जगह का दर्शन उभरे। दर्शन माने यथापूर्व जैसे हुआ हो वैसे नजर आना। जैसे हुआ था वैसे ताद्दश नज़र आये।
मतभेद से पहले ही सावधान हमारे में यदि कलुषित भाव नहीं रहा तो सामनेवाले को भी कलुषित भाव नहीं होगा। हमारे नहीं चिढ़ने पर वे भी ठंडे हो जायेंगे। दीवार समान हो जाना ताकि सुनाई नहीं दे। हमारी शादी को पचास साल हो गये पर किसी दिन मतभेद ही नहीं हुआ। हीराबा के हाथों से घी उँडेला जा रहा होने पर भी मैं चुपचाप देखता ही रहूँ। उस समय हमारा ज्ञान हाज़िर रहें कि वह घी उँडेलेंगी ही नहीं। मैं यदि कहूँ कि उँडेलिए तब वह नहीं उँडेलेंगी। जान-बूझकर कोई घी उँडेलता है कभी? नहीं न? फिर भी घी उँडेला जा रहा है, वह हम देखते रहें। मतभेद होने से पहले हमारा ज्ञान ऑन द मॉमेन्ट (तत्क्षण) हाज़िर रहता है।
प्रकृति को पहचानकर समाधान से पेश आयें
हमारे घर में कभी भी मतभेद नहीं हुआ। हम ठहरे पाटीदार इसलिए हिसाब में हमारी गिनती नहीं होती। मतलब जब घी परोसना होता है तब घी का पात्र आहिस्ता-आहिस्ता, घी हिसाब से परोसा जाए ऐसे नहीं झुकाते। फिर कैसे झुकाते होंगे हम? यों सीधे नाईन्टी डिग्री पर ही! और अन्यत्र लोग तो क्या करेंगे? वहाँ देखें तो, हर समय डिग्री डिग्रीवाला (थोड़ाथोड़ा, एकदम से उँडेलते नहीं)। यह हीराबा भी डिग्री-डिग्रीवालों में से थीं। यह सब मुझे नहीं भाता था और मन में होता था कि यह तो हमारा बरा दिखता है। पर हमने प्रकृति को पहचान लिया था कि यह ऐसी प्रकृति है। मगर यदि हमने कभी उँडेल दिया तो वह चला लेगी। वह भी हमसे कहा करती कि 'आप तो भोले हैं, सबको बाँटते फिरते हैं।' उनकी बात भी सही ! मैंने अलमारी की चाबी उसे दे रखी थी। क्योंकि कोई आने पर,