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दादा भगवान?
दादा भगवान?
जो सुख मैंने पाया, वही जग पायें मैं कहा करता हूँ न कि भैया मैं तो सत्ताईस सालों से (१९५८ में आत्मज्ञान होने के बाद) मुक्त ही हूँ, बिना किसी टेन्शन के। अर्थात् टेन्शन हुआ करता था ए.एम.पटेल को, मुझे थोड़े ही कुछ होता था? पर ए.एम.पटेल को भी जब तक टेन्शन रहता है, तब तक हमारे लिए बोझ ही है न! वह जब पूरा होगा तब हम समझें कि हम मुक्त हुए और फिर भी जब तक यह शरीर है वहाँ तक बंधन है। लेकिन अब उसके लिए हमें कोई आपति नहीं है। दो अवतार ज्यादा होने पर भी हमें आपत्ति नहीं है। हमारा लक्ष्य क्या है कि, 'यह जो सुख मैंने पाया है वही सुख सारी दुनिया को मिले।' और आपको क्या जल्दी है यह बताइये। आपको वहाँ पहुँचने की जल्दी है क्या?
दादाई ब्लैन्क चेक यह 'दादाजी' एक ऐसा निमित्त है, जैसे कि 'दादाजी' का नाम देने पर यदि बिस्तर में बिमार पड़े हो, बिछौने में हिलना-डुलना नहीं होता हो फिर भी खड़े हो सकते हैं। इसलिए अपना काम बना लीजिए। आप जो काम करना चाहें वह हो सके ऐसा है। माने निमित्त है ऐसा। मगर उसमें बुरी नियत मत रखना। किसी के यहाँ शादी में जाने के लिए शरीर खड़ा हो जाए (तबीयत अच्छी हो जाए), ऐसा मत माँगना। यहाँ सत्संग में आने के लिए शरीर खड़ा हो ऐसा माँगना। मतलब कि 'दादाजी' का सदुपयोग करना, उनका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। क्योंकि यदि दुरुपयोग नहीं किया तो 'दादाजी' दोबारा मुसीबत के वक्त काम आयेंगे। इसलिए हम उन्हें यों ही फ़जूल काम में नहीं लाएँ।
__ अर्थात् यह दादाजी का तो ब्लैन्क चेक, कोरा चेक कहलाये। वह बार-बार मुनाफे के लिए उपयोग में लेने जैसा नहीं है। भारी मुसीबत आने पर जंजीर खींचना। सीगरेट का पाकिट गिर गया हो और हम रेल की जंजीर खींचेंगे तो दंड होगा कि नहीं होगा? माने ऐसा दुरुपयोग मत करना।
अपनापन सौंप दिया देखिये, मैं आपको बता दूँ। मेरा तो यह खोजते-खोजते लम्बा अरसा गुजर चुका है। इसलिए आपको तो मैं आसान-सी राह दिखाता हूँ। मुझे तो राहें ढूँढनी पड़ी थीं। आपको मैं जिस राह गया था वही राह दिखा रहा हूँ, ताले खोलने की चाबी दे देता हूँ।
यह 'ए.एम.पटेल' जो हैं न, उन्होंने खुद का अपनापन भगवान को समर्पित कर दिया है। इसलिए भगवान उसे हर तरह से सम्हाल लेते हैं।
और ऐसा सम्हालते हैं न, सही मानों में! पर कब से सम्हालते हैं? जब से खुद का अपनापन गया तब से, अहंकार जाने के बाद। बाकी, अहंकार जाना मुश्किल है।
इसलिए हमें वहाँ मुंबई या बडौदा में कुछ लोग कहते हैं कि, 'दादाजी, आप पहले मिले होते तो बेहतर था।' इस पर मैं कहता हूँ, 'गठरी के तौर पर मुझे उठा लाते हैं तब यहाँ आना होता है और गठरी के माफिक उठा ले जाते हैं तब जाता हूँ।' ऐसा करने पर वे समझ जाते हैं। फिर भी कहते हैं, 'गठरी की माफिक क्यों कहते हैं?' अरे, यह गठरी ही है न, गठरी नहीं तो और क्या है? भीतर पूर्ण रूप से भगवान है, पर बाहर तो गठरी ही है न! अर्थात् अपनापन नहीं रहा है।
महात्मा सभी, एक दिन भगवान होकर रहेंगे
प्रश्नकर्ता : आपने जो बताया कि, हम सबको आप भगवान बनाना चाहते हैं, वह तो जब होंगे तब होंगे पर आज तो नहीं हुए हैं न?
दादाश्री : पर वे होंगे न! क्योंकि यह अक्रम विज्ञान है। जो बनानेवाला है वह निमित्त है और जिसे बनने की इच्छा है वे दोंनो जब आ मिलेंगे, तब होकर ही रहेंगे। बनानेवाला क्लियर(स्पष्ट) है और हमारा क्लियर है, हमारी और कोई वृत्ति नहीं है। इसलिए एक दिन सारे अंतराय दूर हो जायेंगे और भगवान होकर रहेगा, जो हमारा मूल स्वरूप ही है।
जय सच्चिदानंद