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दादा भगवान?
दादा भगवान?
(४) साझेदारी में व्यवसाय करते...
नौकरी में मिले उतना ही घर खर्च के लिए
हमने बचपन में तय किया था कि जहाँ तक हो सके झूठ की लक्ष्मी घर में घुसने नहीं देनी है और यदि संयोगाधीन घुस जाए तो उसे धंधे में ही रहने देनी, घर में घुसने नहीं देनी है। इसलिए आज हमें छियासठ साल हो गये पर झूठ की लक्ष्मी को घर में घुसने नहीं दिया और घर में कभी भी क्लेश पैदा नहीं हुआ। घर में तय किया था कि इतने पैसों से घर चलाना। धंधे में लाखों की कमाई हो, पर यदि यह ए.एम.पटेल सर्विस (नौकरी) करने जाए तो कितना वेतन मिले? ज्यादा से ज्यादा छहसौसातसौ रुपैया मिले। धंधा, तो पुण्याई का खेल है। इसलिए नौकरी में मुझे जितना मिले उतने पैसों का ही घर में खर्च किया जाए, शेष धंधे में ही रहने देना चाहिये। इन्कमटैक्सवालों का खत आये तो हम कहें कि वह रकम है उसे भर दीजिये।' कौन सा 'अटैक' कब होगा उसका कोई ठिकाना नहीं है और यदि उन पैसों को खर्च कर दिया तब वहाँ इन्कमटैक्सवालों का 'अटैक' होगा ही, पर साथ-साथ यहाँ दूसरा 'अटैक' (हार्ट का) भी आयेगा! हर जगह 'अटैक' होने लगे हैं न? इसे जीवन कैसे कहें? आपको क्या लगता है? भूल होती लगती है या नहीं? हमें उस भूल को मिटानी है।
लक्ष्मी की न कमी, न भराव
उगाही करे तब परेशानी आये न ! यह सन बयालीस की बात है, उन दिनों फ्रेन्डसर्कल में रुपयों का लेन-देन चला। उन रुपयों को फिर वापस लौटाने कोई नहीं आया। पहले तो किसीको रुपये देने पर कोई दो सौ-पाँच सौ नहीं लौटा था तब तक ठीक था। मेरे पास था इसलिए मैंने सभी दोस्तों को हेल्प (मदद) की थी, मगर बाद में एक भी लौटाने नहीं आया। इस पर मेरे अंदर से आवाज़ आई कि, 'यह अच्छा हुआ, यदि रुपयों की फिर से उगाही करेंगे तो फिर से उधार माँगने आयेंगे।' उगाही करने पर थोड़े-थोडे करके पाँच हजार लौटाए जरूर मगर फिर से दस हजार लेने आयें। इसलिए यदि लेने आनेवाले को बंद करना हो तो यह रास्ता उत्तम है। हम इतने से ही रोक लगा दें, ताला लगा दें। उगाही करेंगे तो फिर से आयेंगे न! और उन लोगों ने क्या निष्कर्ष निकाला कि, 'उगाही ही नहीं करते. चलिये हमारा काम बन गया।' इसलिए फिर वे मुँह दिखाने से ही बाज़ आये और मुझे यही चाहिए था। मतलब कि 'भला हुआ, मिटा जंजाल, सूख से भजेंगे श्री गोपाल' अर्थात् उस समय यह कला हस्तगत हुई!
हमारा एक पहचानवाला रुपया उधार ले गया था। फिर लौटाने ही नहीं आया। इस पर हमारी समझ में आ गया कि यह बैर से बँधा होगा, इसलिए भले ही ले गया। ऊपर से उससे कह दिया कि, 'तू अब हमें रुपया लौटाने मत आना, तुझे छूट देते हैं।' ऐसे यदि पैसे गँवाना पड़े तो गँवाकर भी बैर से मुक्ति पाइये।
उधार दिया था उसे ही दुबारा दिया! कैसे फँसे?
ऐसा है न कि संसार में लेन-देन तो चलता ही रहता है। कभी किसी से लिए होते हैं, कभी किसी को देना पड़ता है, अर्थात् कभी किसी आदमी को कुछ रुपये उधार दिये और उसने नहीं लौटाए, तो इसके कारण मन को क्लेष तो होगा ही न? मन में होता रहे कि, 'वह कब लौटायेगा? कब वापस करेगा?' इसका कोई अंत है क्या?
हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ था न ! पैसे वापस नहीं आने पर उसकी
मुझे कभी लक्ष्मी की कमी नहीं पड़ी और भराव भी नहीं हुआ। लाख आने से पहले कहीं न कहीं से बम आ गिरेगा (कुछ ऐसा हो जाए) और खर्च हो जायेंगे। माने भराव तो होता ही नहीं है कभी, और कमी भी नहीं होती है, और कुछ दबाकर भी नहीं रखा है। क्योंकि यदि हमारे पास झूठ का पैसा आये तब दबाना पड़ेगा न? ऐसा गलत धन ही नहीं आता तो दबाएँ कैसे? और ऐसा हमें चाहिए भी नहीं। हमें तो कमी नहीं हो और भराव नहीं होता माने बहुत हो गया।