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________________ दादा भगवान? ४३ दादा भगवान? प्रश्नकर्ता : उस पर उपयोग देकर खोजना तो पड़ेगा न? दादाश्री : नहीं, नहीं, वह तो यदि तारीख मिलनी होगी तो अपने आप मिल आयेगी। इस समय हम क्यों झंझट में पड़े? प्रश्नकर्ता : उस समय बारीश का मौसम था क्या? दादाश्री : नहीं, वह बारीश और गरमी के बीच का मौसम था। प्रश्नकर्ता : जुलाई का महीना था क्या? दादाश्री : वह जुलाई नहीं, जून था। हमें उससे कोई सरोकार ही नहीं था, हमें तो उजियारा हआ उससे सरोकार था। प्रश्नकर्ता : लोग पीछे से जानने को बेताब होंगे न? दादाश्री : बेताब होंगे तब सामने आ भी सकता है! ज़रूरत होगी तब निकल आयेगा। ऐसे करना प्रतिक्रमण अरे, उस समय अज्ञान-अवस्था में हमारा अहंकार भारी था! फलाँ ऐसे, फलाँ वैसे, निरा तिरस्कार, तिरस्कार, तिरस्कार, तिरस्कार.... और कभी किसी को सराहते भी सही। एक ओर इसको सराहतें और दूसरी ओर उसका तिरस्कार करते। और जब १९५८ में ज्ञान प्रकट हुआ तब से ए. एम. पटेल को बोल दिया कि जिसके जिसके तिरस्कार किये है, उन आदमीओं को खोज-खोजकर, वे तिरस्कार को साबून डालकर धो डालिये, इसलिए एक-एक को खोजकर सभी बारी बारी से धोते रहें। इस ओर के पड़ोसी, उस ओर के पड़ोसी, सारे परिवारवाले, चाचा, मामा सब के साथ तिरस्कार हुआ होता है, बिना वजह ! उन सभी को धो डाला। प्रश्नकर्ता : अर्थात् मन से प्रतिक्रमण किया, रूबरू जाकर नहीं? दादाश्री : मैंने ए.एम.पटेल से कहा कि यह आपके किये सारे उलटे काम मुझे नज़र आते हैं। अब तो इन सभी उलटे कियों को धो डालिये। इसलिए उन्होंने क्या करना शुरू किया? कैसे धोया? मैंने तब उनको समझाया कि याद कीजिये। चंदुभाई को गालियाँ सुनाई है, सारी जिन्दगी भला-बुरा कहा है, तिरस्कृत किया है, यह सब वर्णन करके कहना, 'हे चंदुभाई, मन-वचन-काया का योग, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न, प्रकट शुद्धात्मा भगवान! चंदुभाई में स्थित शद्धात्मा भगवान ! मैं बारबार चंदुभाई की माफ़ी चाहता हूँ, दादा भगवान को साक्षी रखकर माफ़ी माँगता हैं और फिर से ऐसे दोष नहीं करूँगा।' यदि आप ऐसा करेंगे तब आप सामनेवाले के चेहरे का परिवर्तन देख लीजिये। उसका चेहरा बदला हुआ नज़र आयेगा। आप यहाँ प्रतिक्रमण करें और वहाँ परिवर्तन होता रहे। इस ज्ञान के प्राकट्य के पश्चात् यह सारे सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्सीस आ मिलें और सूरत के स्टेशन पर काल आ मिला। उस काल को लेकर यह ज्ञान प्रकट हो गया, कि जगत किस आधार पर चल रहा है, कैसे चल रहा है यह सब, सारा विज्ञान दिखाई पड़ा, बाहर की आँख से नहीं, अंदरूनी आँख से। बस उसी क्षण से सारा अहंकार चला गया। 'मैं देह हँ' वह सब उड़ गया। पूर्णतया ज्ञानदशा है तत्क्षण से। अब वहाँ बडौदा में ज्ञानदशा में रहता था। मूल पहलेवाले कर्म की वजह से सारे फ्रेन्ड सर्कल का आना-जाना होता रहता था। पहले की तरह लोगों से, 'आप कैसे हैं? क्या हुआ? क्या नहीं, यह सब होता रहता था, पर उसमें जो पहले ममता थी वह नहीं रही। पहले मान के पोषण हेतु मैं बोलता था। किसी का कोई कार्य मैंने मुफ्त में नहीं किया है उसकी एवज़ में मेरा मान का पोषण होता रहा है, इतना ही। अर्थात् बिना एवज़ के तो कोई कार्य होता ही नहीं है। पर अब वही कार्य मान की अपेक्षा के बगैर होने लगा। ज्ञान प्रकट होने के पश्चात् चार साल गुजर गये। वहाँ तक किसी को मालूम नहीं था कि इनको कुछ प्राप्ति हुई है। फिर सारी भीड़ होने लगी (लोग ज्ञानप्राप्ति के लिए आने लगे)।
SR No.009584
Book TitleDada Bhagvana Kaun
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2007
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size283 KB
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