________________
दादा भगवान?
दादा भगवान?
चिंता तो हम पहले से ही नहीं किया करते थे। यों साधारण रूप से टकोरते, उसे कहते जरूर थे। हमने एक आदमी को पाँच सौ रुपये उधार दिये थे, देने पर बहीखाते में दर्ज तो नहीं किया होता कि न ही कोई कागज़ पर दस्तखत करवाये होते थे! इसको साल-डेढ़ साल हो गया होगा। मझे भी कभी याद नहीं आया था। एक दिन वह आदमी मुझे रास्ते में मिल गया, मुझे याद आने पर मैंने उससे कहा कि, 'यदि अब हाथ पर रहते हो तो मेरे पाँच सौ जो उधार लिए थे, उसे लौटा दीजिये।' इस पर उसने पूछा कि 'पाँच सौ काहे के?' मैंने याद दिलाया कि, 'आप जो मुझ से उधार ले गये थे न वे।' यह सुनने पर वह कहने लगा कि, 'आपने मझे कब दिये थे? रुपये तो मैंने आपको उधार दिये थे, यह आप भूल गये हैं क्या?' इस पर मुझे कोई हैरानी नहीं हुई। कुछ समय रूककर, मैंने कहा कि, 'मुझे जरा सोचने दीजिये।' थोड़ी देर सोचने का दिखावा करके मैंने कहा कि, 'हाँ, याद आया सही, ऐसा कीजिये, आप कल आकर ले जाइये।' फिर दूसरे दिन रुपये दे दिये। वह आदमी यहाँ आकर हमसे उलझने लगे कि आप मेरे रुपये क्यों नहीं लौटाते तो क्या करेंगे हम? ऐसी कई घटना होने के उदाहरण है।
इसलिए इस संसार को कैसे पार कर सकते हैं? हमने किसी को यदि रुपये उधार दिये हो तो वह कपड़े की काली चिंदी में बाँधकर दरिया में डाल देने के बाद वापस मिलने की आशा करने के बराबर है। यदि वापस आ जाए तो जमा कर लेना और देनेवाले को चाय-पानी पिलाकर कहना कि, 'भाईजी, आपका ऋण समझना चाहिए कि आपने रुपया लौटाया वरना ऐसे काल में कोई भी लौटाता नहीं। आपने लौटाया यह अजूबा कहलाये।' वह कहे कि, 'व्याज नहीं मिलेगा।' तब कहना, 'मूल धन लाया इतना ही काफी है।' समझ में आता है? ऐसा संसार है। उधार लिया है उसे लौटाने में कष्ट होता है और उधार देनेवाले को वापस न आने का दुःख है। अब इनमें सुखी कौन? और है व्यवस्थित (सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स)। नहीं लौटाता वह भी व्यवस्थित है और मुझे डबल देने पड़े वह भी व्यवस्थित है।
प्रश्नकर्ता : आपने दूसरे पाँच सौ क्यों दिये?
दादाश्री : दोबारा किसी अवतार में उस आदमी के साथ पाला नहीं पड़े इसलिए। इतनी जागृति रहे न, कि यह तो गलत जगह आ गये।
ठगाये, मगर कषाय न करने हेतु हमारे साझीदार ने एक बार हमसे कहा कि, 'लोग आपके भोलेपन का लाभ उठाते हैं। मैंने कहा, 'आप मुझे भोला समझते हैं इसलिए आप ही भोले हैं, मैं तो समझ-बूझ के साथ ठगाता हूँ।' इस पर उसने कहा, 'अब मैं ऐसा नहीं बोलूँगा'। मैं समझू कि इस बेचारे की मति ही ऐसी है, उसकी नीयत ऐसी है, इसलिए जाने दीजिये, लेट गो कीजिये! हम कषायों से मक्त होने आये हैं। हम कषाय नहीं हो इसलिए ठगाते हैं। इसलिए दोबारा भी ठगायेंगे। जान-बूझकर ठगे जाने में मजा आयेगा कि नहीं? जान-बूझकर ठगानेवाले कम होंगे न?
प्रश्नकर्ता : होते ही नहीं।
दादाश्री : बचपन से मेरा 'प्रिन्सिपल' (सिद्धांत) रहा था कि समझकर ठगाना! बाकी कोई मुझे उल्लू बनाये और ठग जाए उस बात में कोई दम नहीं है। यह जान-बूझकर ठगे जाने पर क्या हुआ? ब्रेन टॉप पर पहुँच गया, बड़े-बड़े जजों का ब्रेन काम नहीं करता ऐसे काम करने लगा। जज जो होते हैं वे भी समझ के साथ ठगानेवालों में से होते हैं। और जान-बूझकर ठगे जाने पर ब्रेन टॉप पर पहुँच जाता है। पर देखना, तू ऐसा प्रयोग मत करना। तूने तो ज्ञान लिया है न? यह तो जब ज्ञान नहीं लिया हो तब ऐसा प्रयोग करना है।
अर्थात् जान-बूझकर ठगाना है, पर वह किसके साथ ऐसे ठगाना है? जिसके साथ हमारा रोजाना व्यवहार हो उसके साथ! और बाहर भी कभीकभी किसी से ठगाना, मगर समझ-बूझकर! सामनेवाला समझे कि मैंने इसे ठग लिया और हम समझे कि उसे उल्लू बनाया।
धंधे में भी ओपन टु स्काय धंधे के बारे में तो मैं सबकुछ जैसा हो वैसा बता देता था। इस