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(१५) आचरण में धर्म
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आप्तवाणी-४
सीधे के लिए शक्ति माँगनी पड़ती हैं जिस अज्ञान पर श्रद्धा बैठ गई हो, तो वह क्रिया बहुत देर तक चलती है और थोड़ी श्रद्धा हो तो वह क्रिया वेग से खत्म हो जाती है। थोडा-सा अज्ञान हो तो वह जल्दी खत्म हो जाता है। अज्ञान का ज्ञान जानने में उसकी पुद्गल शक्तियाँ खर्च होती हैं और ज्ञान का ज्ञान जानने के लिए प्रार्थना करनी पड़ती है कि मुझे ये शक्तियाँ दीजिए। अज्ञान का ज्ञान जानने के लिए तो पुद्गल शक्तियाँ यों ही मिलती ही रहती है। जब कि ज्ञान के लिए वैसी शक्तियाँ नहीं मिलती हैं। असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, उनमें पद्गल की शक्तियाँ सरलता से मिलती ही रहती है। जब कि उससे विरुद्ध सत्य, ब्रह्मचर्य, के लिए शक्तियाँ माँगनी पड़ती हैं। वह ज्ञान-दर्शन से जानकर, श्रद्धा से शक्तियाँ माँगने से शक्तियाँ मिलती हैं। अज्ञान नीचे उतार देनेवाला है और उसमें पुद्गल शक्तियाँ आती ही रहती हैं। जब कि ज्ञान ऊँचा चढ़ानेवाला है, उसके पुद्गल विरोधी होने के कारण शक्तियाँ माँगनी पड़ती हैं, तभी ऊँचा चढ़ा जा सकता है।
प्रार्थना से शक्तियाँ प्राप्त प्रश्नकर्ता : ऊँचा चढ़ने के लिए ये शक्तियाँ किस तरह माँगें। और किससे माँगें?
दादाश्री : खुद के शुद्धात्मा से, 'ज्ञानी पुरुष' से शक्तियाँ माँगी जा सकती हैं और जिन्हें स्वरूपज्ञान नहीं हो, वे खुद के गुरु, मूर्ति, प्रभु जिन्हें मानता हो, उनके पास से शक्तियाँ माँगनी चाहिए। जो-जो खुद में गलत दिखे उसका लिस्ट बनाना चाहिए और उसके लिए शक्तियाँ माँगे। श्रद्धा से, ज्ञान से, जो गलत है, उसे नक्की करके रखो कि यह गलत ही है। उसके प्रतिक्रमण करो, ज्ञानी के पास से शक्तियाँ माँगो कि ऐसा नहीं होना चाहिए, तब वह जाएगा। बड़ी गाँठे हों, वे सामायिक से विलय हो जाती हैं और दूसरे छोटे-छोटे दोष तो प्रार्थना से ही खत्म हो जाते हैं। बिना प्रार्थना से जो उत्पन्न हुआ है, वह प्रार्थना से खत्म हो जाता है। यह सब अज्ञान से उत्पन्न हो गया है। पौद्गलिक शक्तियाँ प्रार्थना से खत्म हो जाती हैं।
फिसल जाना आसान है और चढ़ना मुश्किल है। क्योंकि फिसलने में पौद्गलिक शक्तियाँ होती हैं।
प्रश्नकर्ता : प्रार्थना मतलब क्या?
दादाश्री : प्र + अर्थना = प्रार्थना। प्र यानी विशेष अर्थ की माँग करना, वह। भगवान के पास से और अधिक अर्थ की माँग करना, वह।
प्रश्नकर्ता : जगत् में प्रार्थना करते हैं, उसका फल तो आता है न? दादाश्री : प्रार्थना सच्ची होनी चाहिए, वैसा कोई ही होता है। प्रश्नकर्ता : सौ में एक होता है न?
दादाश्री : होता है, कोई हृदय शुद्धिवाला हो उसकी प्रार्थना सच्ची होती है। लेकिन प्रार्थना करते समय चित्त दूसरी जगह पर हो तो वह सच्ची प्रार्थना नहीं कहलाती।
प्रश्नकर्ता : प्रार्थना करें तो किसके लिए और किसलिए करें?
दादाश्री : प्रार्थना अर्थात् स्वयं खुद की खोज करता है। भगवान खुद के भीतर ही बैठे हैं, पर उनसे पहचान नहीं हुई है इसलिए मंदिर में या जिनालय में जाकर दर्शन करते हैं वह परोक्ष दर्शन है।
प्रार्थना : सत्य का आग्रह प्रश्नकर्ता : एक व्यक्ति है, वह केवल सत्य के रास्ते पर चलता है और दूसरा है वह प्रार्थना करता है. तो दोनों में से कौन सच्चा है? दोनों में से किसे भगवान जल्दी मिलेंगे?
दादाश्री : प्रार्थना करे उसे। प्रश्नकर्ता : 'सत्य ही ईश्वर है' ऐसा कहा जाता है न?
दादाश्री : यह सत्य ईश्वर नहीं है। यह सत्य तो बदल जाए ऐसा है। यह आप मानते हो कि 'मैं चंदूभाई हूँ' वह गलत ही है न? यह सत्य विनाशी है, यह खरा सत् नहीं है। खरा सत् तो जो अविनाशी है वही सत्