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________________ (१५) आचरण में धर्म १२७ १२८ आप्तवाणी-४ और धर्म क्या है? तब कहें, खुद के स्वरूप में रमणता करनी वह । लौकिक धर्म अर्थात् भगवान की आज्ञा में रहना, वह। 'अक्रम मार्ग' तो ऐसा सरल रास्ता निकालेगा कि धर्म सभी को एकदम आसान लगेगा और तुरन्त उसका फल मिलेगा। धर्म किसे कहा जाता है? जो परिणमित हो वह धर्म, जैसे हम खीर खाएँ उसके बाद हमारी भूख खत्म हो जाती है, वैसे ही जो 'स्वरूपज्ञान' देते हैं उससे किसी काल में किसी जन्म में नहीं हुई हो, वैसी अंतरशाता होती है। बाह्य अशाता भले हो, परन्तु अंतरशाता निरंतर रहती है। जगत् में बाह्यशाता होती है, पर अंतरशाता किसीको भी नहीं होती। अपना साइन्स क्या कहता है कि तू चोरी करता है या तुझसे झूठ बोला जाता है, उसमें हमें हर्ज नहीं है, पर उसका तू 'इस तरह से' प्रतिक्रमण करना। हम चोर से ऐसा नहीं कहते कि तू चोरी मत कर। हम उसे कहते हैं कि तू चोरी करता है, उसका यह फल है, इसलिए समझ लेना। यह चोरी करता है, झूठ बोलता है, क्रोध करता है, वह सब अनिवार्य रूप से करना पड़ता है। उसमें हम उसे डाँटें कि ऐसा क्यों करता है तो वह ज्यादा करेगा और मन में वापिस चोर नक्की करेगा कि 'चोरी तो करूँगा ही, तू कौन है मुझे डाँटनेवाला?' इसलिए प्रेम से समझाओ, प्रेम से सभी रोग जाते हैं। शुद्ध प्रेम 'ज्ञानी पुरुष' के पास से ही या उनके फोलोअर्स के पास से ही मिलेगा। क्रोध के सामने क्षमा, कपट के सामने ऋजुता, मान के सामने मृदुता की आवश्यकता पड़ेगी। क्रोध हो जाए तो होने देना। मान, लोभ हों तो होने देना, पर उनका प्रतिक्रमण करके बदल देना। उससे सबसे बड़ा धर्मध्यान होता है। कुचारित्र का विचार आए तो उसमें हर्ज नहीं है, उनसे घबराना मत, लेकिन उनका प्रतिक्रमण करना। यह लिफ्टमार्ग है. इससे तेज़ गति से आगे बढ़ा जाता है। धर्मध्यान आए तब से ही व्यवहार समकित के चिन्ह दिखते हैं। कुचारित्र का विचार आए तो हम उसे कहें, 'आओ। चाय पीओ, आप आ गए! अब 'ज्ञानी पुरुष' बताते हैं वैसा मैं करूँगा।' यह चौथे दर्जे का धर्मध्यान कहलाता है। आज्ञा ही धर्म यानी कौन-सा धर्म करना है? 'ज्ञानी पुरुष' की आज्ञा पालनी वह 'ज्ञानी पुरुष' को खुश रखने से अधिक उत्तम दूसरा कोई धर्म दुनिया में नहीं है और हमारा राजीपा (गुरजनों की खुशी) उत्पन्न करना आपके ही हाथ में है। आप जैसे-जैसे हमारी आज्ञा में रहकर ऊँचे आते जाएँगे, वैसे-वैसे आप पर हमारा राजीपा बढ़ेगा। भगवान ने कहा है कि 'ज्ञानी' को राजी करने में उनकी सर्व इच्छाओं की प्रशंसा करना सीखोगे, तब भी मोक्ष है! हमारी एक ही आज्ञा पाले, तो वह आज्ञा ही उसे ठेठ मोक्ष तक पहुँचा दे, वैसा है। ज्ञान के अनुसार प्रवर्तन एक दर्जी को ऐसा ज्ञान फिट हो गया कि पिंजरे में चूहे पकड़कर छोड़ने से कौए को भोजन मिलेगा, दूसरे को फायदा हो रहा है। अब उस ज्ञान के कारण चूहों को मारना उसके हिस्से में आता है। हमने उसका वह ज्ञान बदल दिया, वह श्रद्धा के कारण उसे फिट हो गया कि चूहे मारना नुकसानदेह है, उसके बाद वैसा ज्ञान क्रिया में आता जाता है। श्रद्धा ज्ञान से बदलनी चाहिए। समझपूर्वक बदली जानी चाहिए, चारित्र को फिर हमें नहीं देखना है। वह तो उसका पहले का इफेक्ट हो तब तक चारित्र नहीं बदलता। अब वह जब चूहे मारने जाएगा तब उसे होगा कि नहीं मारने चाहिए। फिर भी पूर्व के इफेक्ट के कारण मार देगा, तब उसे भीतर होता रहेगा कि यह गलत हो रहा है। फिर भी यह ज्ञान शुभाशुभ का है। शुद्ध ज्ञान में तो ऐसा कुछ भी नहीं होता है। क्रिया में आए या नहीं आए पर ज्ञान डिगना नहीं चाहिए। श्रद्धा से ज्ञान एक्जेक्ट रहना चाहिए। सच्चा ज्ञान जानने की ही ज़रूरत है, फिर उस ज्ञान पर से श्रद्धा कभी भी चल-विचल नहीं होनी चाहिए। क्रियाएँ फिर भले जो भी हों वे नहीं देखी जातीं। प्रश्नकर्ता : वचनबल से 'एक्जेक्टली' रहता है न? दादाश्री : वचनबल से क्रिया में परिवर्तन होता है। वचनबल से गलत करते हुए रुक जाता है।
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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