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आप्तवाणी-४
(१४) सच्ची समझ, धर्म की
१२३ तप करके आगे जाना है, सीढ़ियाँ चढ़कर जाना है। और एक मार्ग-अक्रम मार्ग है, जिसमें सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते नहीं जाना है, लिफ्ट में जाना है। जो अनुकूल हो उस मार्ग से जाना। आपको लिफ्ट में जाना है या सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते जाना है?
प्रश्नकर्ता : वह तो लिफ्ट में ही जाना आसान और सरल रहेगा न?
दादाश्री : तो हमारे पास आना, एक घंटे में ही आपको नक़द दे दूँगा। फिर चिंता नहीं होगी, उपाधि (बाहर से आनेवाले दुःख) नहीं होगी और समाधि रहेगी! तब हम जानें कि मोक्ष जाने की तैयारी हुई। बेटियों की शादी करो, बेटों की शादी करो. कोई दिक्कत नहीं आएगी। सिर्फ हमारी आज्ञा में रहना। रहा जाएगा न आज्ञा में?
प्रश्नकर्ता : क्यों नहीं? मुझे तो इसकी ही ज़रूरत है। वह तो क्षणिक सुख है।
दादाश्री : अनंत जन्मों से इस क्षणिक सुख में ही रचे-बसे हो। करोड़ों जन्मों से ऐसे ही थे और आज भी ऐसे ही हो, उल्टे अधिक बिगड़ गए हो। जब तक आर्तध्यान और रौद्रध्यान होता है, तब तक भगवान के सच्चे भक्त नहीं कहलाते। यों सीधे समझदार लगते हैं, पर छेड़ें तो फन फैलाते हैं ! वे सच्चे भक्त नहीं कहलाते। भगवान की मूर्ति के दर्शन किए, पर भीतर बैठे हुए भगवान को नहीं पहचाना। अनंत जन्मों से मूर्ति को ही नमस्कार किए हैं न? भगवान को पहचाना नहीं है न? लोग औपचारिकता से भगवान के दर्शन करते हैं और भोजन करते समय चबाचबाकर देखते हैं कि अंदर जायफल है, इलाइची है! यह तो उल्टे बिगड़ता जा रहा है। अब मोक्ष में कब जाओगे सेठ?
प्रश्नकर्ता : अब उसका उपाय आप बताइए कि क्या है?
दादाश्री : उपाय में तो 'ज्ञानी पुरुष' से माँग लेना कि 'साहब मेरी मुक्ति कीजिए।' आप तो कुछ बोलते ही नहीं न? आपको मुक्ति की इच्छा ही नहीं है न! माँग तो करनी पड़ेगी न? हम जौहरी की दुकान में गए हों और सिर्फ देखते रहें और बोले नहीं, तब तक व्यापारी को किस तरह
पता चले कि आपको क्या चाहिए? इसलिए मोक्ष, दिव्यचक्षु जो-जो चाहिए, उन सबका टेन्डर भर के लाना। हम एक घंटे में ही सबकुछ दे देंगे।
स्वभावभाव, वह स्वधर्म प्रश्नकर्ता : धर्म किसे कहें? वही समझना था।
दादाश्री : जो हमें धरकर रखे, गिरने नहीं दे, वह धर्म कहलाता है। अभी तो आप गिर रहे हो, उसका आपको पता ही नहीं। इस कलियुग के सभी मनुष्य स्लिप हो रहे हैं, धीरे-धीरे अधोगित में जा रहे हैं।
धर्म का एक ही अर्थ नहीं है। धर्म कितनी तरह के हैं? एक डिग्री से लेकर तीन सौ साठ डिग्री तक के धर्म हैं। हर एक व्यक्ति के अलगअलग व्यूज (दृष्टिकोण) के अलग-अलग धर्म हैं, इसलिए मतभेद हैं। अपने देश में जो धर्म चलते हैं वे धर्म क्या हैं कि बुरे कर्म छुड़वाते हैं और अच्छे कर्म करवाते हैं।
प्रश्नकर्ता : यानी उसे ही धर्म कहते हैं?
दादाश्री : नहीं। उसे सच्चा धर्म नहीं कहा जा सकता। इस सोने का धर्म क्या है? उसे जंग लगता है क्या? यानी खुद के स्वभाव में रहे तो धर्म कहलाता है। यानी आप आत्मा हो, तो आत्मस्वरूप में रहो, तो ही धर्म कहलाएगा। यह तो देहाध्यास है। बुरे कर्म छुड़वाता है और अच्छे कर्म करवाता है। वह सब भ्रांति ही है। अच्छे कर्म भी भ्रांति है और बरे कर्म भी भ्रांति है, लेकिन उस कारण से मैं अच्छे कर्मों को छोड़ देने को नहीं कहता हूँ। बरे में से अच्छे में जाते हैं, वह अच्छी बात है, लेकिन फिर भी भ्रांति नहीं जाती है। भ्रांति जाने के बाद सच्चे धर्म की शुरूआत होती है।
वस्तु स्वभाव में परिणमित हो, वह धर्म है! यानी आप आत्मा हो। खुद का क्या स्वभाव है? तो कहें, 'निरंतर परमानंद।' परमानंद में रहा. तो बाहर की वस्तु आपको असर नहीं करेगी। वही धर्म है और वह मोक्ष तक पहुँचाता है-मुक्ति देता है।