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(१२) व्यवस्था 'व्यवस्थित' की
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आप्तवाणी-४
दादाश्री : यह तो कालचक्र होता है। जैसे यह गोल चक्र घूमताघूमता ऐसे उतरता है, वैसे ही यह उतरता हुआ काल है। इसके बाद वापिस चढ़ता हुआ काल आएगा।
प्रश्नकर्ता : तो फिर पापी और पुण्यशालियों का क्या दोष?
दादाश्री : कुछ भी दोष नहीं है। वास्तव में खुद दोषित है ही नहीं, परन्तु खुद कहता है कि, 'मैंने यह किया।' गलत करे या सच्चा करे, फिर भी 'मैंने किया', ऐसा कहता है। वह खुद हस्ताक्षर कर देता है, उसके लिए भुगतना पड़ता है। यह खुद नहीं करता। नहीं करना हो, फिर भी कुदरत उससे ज़बरदस्ती करवाती है। नैमित्तिक धक्के से होता है सारा। ये सतयुग
और सारे युग कैसे हैं? अभी दिन में हमें चने लेने हों तो थोड़े-बहुत मिलते हैं, सो मन, दो सौ मन मिल सकते हैं। परन्तु रात को ढाई बजे जाएँ तो? कितने चने मिलेंगे? वैसा है। काल के अनुसार होता रहता है।
सेवा में समर्पणता प्रश्नकर्ता : तो इस जगत् के लिए हमें कुछ भी करने का नहीं रहता है?
दादाश्री : हाँ। उसका फल पुण्य मिलता है, मोक्ष नहीं मिलता।
प्रश्नकर्ता : उसका श्रेय साक्षात्कारी परमात्मा को सौंप दें, तो भी मोक्ष नहीं मिलता?
दादाश्री : ऐसे फल सौंपा नहीं जा सकता न किसीसे। प्रश्नकर्ता : मानसिक समर्पण करें तो?
दादाश्री : वैसा समर्पण करे तो कोई फल ले ही नहीं और कोई दे ही नहीं। वह तो सिर्फ कहने के लिए समर्पण है। उसका फल खुद को ही मिलता है। कुदरत के घर ऐसा न्याय है कि 'भुगते उसकी भूल'।
प्रश्नकर्ता : 'मैं करता हूँ' वह भाव छूट जाए तो?
दादाश्री : कर्त्ताभाव छूट जाए और स्वरूपज्ञान हो जाए, तो कर्म नहीं बंधता।
क्या नई ही समाज-रचना? प्रश्नकर्ता : दुनिया में कुछ लोग लोगों को मारते हैं, काटते हैं और नई समाज-रचना खड़ी करते हैं, उसके बाद क्या होगा?
दादाश्री : यह समुद्र है, इस समुद्र में हमले होते हैं, वे आपने देखे हैं क्या? बड़ी-बड़ी मछलियाँ, सौ-सौ मन की, दस-दस मन की, अंदर ही अंदर लड़ती हैं, वह सब देखा है आपने?
प्रश्नकर्ता : बस, वैसी ही लड़ाईयाँ चलती ही रहेंगी, ऐसा?
दादाश्री : हाँ। यह कुदरत का काम है। कोई इसमें कुछ नहीं करते बेचारे! यह 'व्यवस्थित' करवाता है। ये लड़ाईयाँ, वॉर, सब कुदरती है। आपको यदि संसार पसंद नहीं हो तो अकर्ता होकर, 'ज्ञानी पुरुष' के कहे अनुसार रहो तो हल आ जाए। इसमें किसीकी सत्ता नहीं है। वर्ल्ड में किसीकी संडास जाने की भी सत्ता नहीं है। जब कुदरत में संयोग होंगे तभी सब होगा।
दादाश्री : आपको करना था ही नहीं, यह तो अहंकार खड़ा हो गया है। सिर्फ ये मनुष्य ही अहंकार करते हैं, कर्त्तापन का।
प्रश्नकर्ता : ये बहन डॉक्टर हैं। एक गरीब पेशेन्ट आया, उसके प्रति अनुकंपा होती है, इलाज करती है, परन्तु आपके कहे अनुसार तो फिर अनुकंपा करने का कोई सवाल ही नहीं रहता न?
दादाश्री: वह अनुकंपा भी कुदरती है, पर वापिस अहंकार करते हैं कि, 'मैंने कैसी अनुकंपा की!' अहंकार नहीं करे तो कोई हर्ज नहीं। परन्तु अहंकार किए बिना रहते नहीं हैं न?
प्रश्नकर्ता : इस जगत् की सेवा में परमात्मा की सेवा का भाव रखकर सेवा करे, वह फर्ज में आता है न?