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(१२) व्यवस्था 'व्यवस्थित' की
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प्रश्नकर्ता : यह जगत् तो लक्जुरीयस बनता जा रहा है, जड़ होता जा रहा है।
दादाश्री : कब तक लक्जुरियस नहीं थे? जब तक कुछ देखा नहीं था, तब तक ही। इसलिए जिन्होंने देखा नहीं था, ये वैसे निर्मोही थे। गाँव में देखा ही नहीं था न?
प्रश्नकर्ता : नहीं मिला तो ब्रह्मचारी थे, ऐसा?
दादाश्री : अभी जो मोह दिखता है, वह देखने का मोह है। और इस मोह में से ज्ञान उत्पन्न हआ है। ठोकरें खा-खाकर दम निकल गया है और उस मोह में से वैराग्य जन्मा है।
(१३) व्यवहारधर्म : स्वाभाविकधर्म सुख प्राप्त करने के लिए धर्म कौन-सा? प्रश्नकर्ता : धर्म क्या है? धर्म किसे करना है? धर्म पालन करने का अर्थ क्या है?
दादाश्री : ये सारे धर्म चल रहे हैं, वे व्यवहारिक धर्म हैं, व्यवहारिक मतलब व्यवहार चलाने के लिए। वैष्णव धर्म, जैन धर्म, शैव धर्म वगैरह सब व्यवहार धर्म है।
अब इस रोड पर गाड़ियों का व्यवहार होता है या नहीं होता? उनका क्या धर्म है कि टकराओगे तो आप मर जाओगे। टकराने में जोखिम है इसलिए किसीके साथ टकराना नहीं, किसीको दुःख या त्रास मत देना, वैसा वाहनधर्म भी कहता है, वैसे ही यह व्यवहारधर्म भी कहता है कि किसीको त्रास मत देना। आपको सुख चाहिए तो दूसरों को सुख देना। वही मनुष्य आपको सुख नहीं दे सके तो दूसरे मनुष्य सुख देंगे आपको। यदि दुःख दोगे तो कोई न कोई मनुष्य आपको दुःख देगा ही, यह व्यवहारिक धर्म कहलाता है।
जब कि सच्चा धर्म तो खुद की वस्तु का स्वभाव है। वह आत्मधर्म है, खुद का स्वाभाविक धर्म है, उसमें तो निरंतर परमानंद ही है। सच्चा धर्म तो 'ज्ञानी पुरुष' आत्मा दे दें तब से अपने आप ही चलता रहता है और व्यवहारधर्म तो हमें करना पड़ता है, सीखना पड़ता है।
सर्व समाधान से, सुख ही प्रश्नकर्ता : धर्म में और व्यवहार में सभी जगह लागू हो और सुख