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________________ (११) आत्मा और अहंकार १०३ कमजोरियाँ हैं, इसलिए ही आप जीव स्वरूप में हो। और भगवान में कमज़ोरी नहीं हैं, इसलिए आपकी कमजोरियाँ जाएँगी, तो फिर भगवानस्वरूप का निरंतर साक्षात्कार रहेगा । यह तो लोग 'चंदू-चंदू' करते रहते हैं इसलिए उसे असर हो जाता है कि, 'मैं चंदू हूँ।' इस भ्रांति का असर फिर जाता नहीं। बाकी खुद ही परमात्मा है ! तरणतारण ही तारें प्रश्नकर्ता: उस परमात्मा की 'स्टेज' तक जाने के लिए क्या करना पड़ता है ? दादाश्री : उसके लिए ‘ज्ञानी पुरुष' के पास से कृपा प्राप्त करनी चाहिए। यदि धीरे-धीरे उस स्टेज में जाना हो तो 'ज्ञानी पुरुष' के पास से आज्ञा लेनी चाहिए और यदि कृपा प्राप्त कर ले, तो वह पद घंटेभर में ही मिल जाए। और नहीं तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जाना। जिसे बहुत जल्दी नहीं हो, अभी इन्द्रियों के रस भोगने की इच्छा रह गई हो, संसार की इच्छा रह गई हो, वह धीरे-धीरे जाए और जिसे इस संसार के सुख में भी दुःख लगता रहता हो, सुख भी सहन नहीं होता हो, तो फिर वह मुक्ति का अधिकारी हो गया। फिर 'ज्ञानी पुरुष' उसे मुक्ति देते हैं। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' खुद तरणतारण हुए हैं, खुद तर गए हैं और अनेक लोगों को तारने में समर्थ हैं। प्रश्नकर्ता: वैसी गुरुकृपा हो जाए तो फिर मेहनत कम करनी पड़ेगी। दादाश्री : अभी आप जो मेहनत कर रहे हो, वह सारी बेकार जाएगी। अब वह बिल्कुल बेकार नहीं जाती, जो काम घंटेभर में हो जाए, उसके बदले पूरा साल बिगड़ता है। और गुरु सिर पर हों, वे गुरु जहाँ तक पहुँचे हों, वहाँ तक हमें ले जाते हैं। और 'ज्ञानी पुरुष' ठेठ तक पहुँचे हुए होते हैं, इसलिए वे हमें ठेठ तक ले जाते हैं। ܀܀܀܀܀ प्रश्नकर्ता शक्ति' है ? (१२) व्यवस्था 'व्यवस्थित' की 'व्यवस्थित शक्ति' जगत् नियंत्रण किसी शक्ति से है, वही 'व्यवस्थित दादाश्री : वही 'व्यवस्थित शक्ति' है। यह नियंत्रण यानी कैसा है? हमें पानी ऊपर चढ़ाना हो तो पंप चलाना पड़ता है और पानी खाली कर देना हो तो? आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता। कोई पूछे कि ऐसा क्यों? क्योंकि पानी का स्वभाव ही है कि निचले स्थान पर चले जाना। वैसे ही यह नियंत्रण भी स्वभाव से ही होता है। प्रश्नकर्ता : जगत् में जो मूल तत्व हैं, उन पर तो 'व्यवस्थित' का क़ाबू है न? दादाश्री : किसीका भी किसी पर क़ाबू है ही नहीं। बेक़ाबू टोली है यह सारी, सभी स्वतंत्र हैं। 'व्यवस्थित' तो आपके जानने के लिए है, समझने के लिए हैं। बाकी उन्हें कुछ भी पड़ी नहीं है। 'व्यवस्थित' तो आपको मोक्ष के स्टेशन तक जाने की टिकिट है। वह टिकिट हो तो आपसे आगे बढ़ा जाएगा। कोई किसीके बस में नहीं है, सब स्वतंत्र हैं। उसमें आत्मा परमात्मा है, चेतन है। फिर भी दूसरे उसकी सुनते नहीं हैं। दूसरे तत्व कहते हैं कि, 'तू परमात्मा है, उसमें हमें क्या? तू जुदा और हम जुदा है !' कालचक्र के अनुसार.... प्रश्नकर्ता : ये युग, सत्युग कलियुग किस तरह बने ?
SR No.009576
Book TitleAptavani 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherMahavideh Foundation
Publication Year2010
Total Pages191
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size50 KB
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