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(११) आत्मा और अहंकार
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आप्तवाणी-४
खद कर्ता होते न तो कोई अर्थी में ही नहीं जाता। संडास जाने की शक्ति नहीं है किसीमें भी। फिर भी उसकी दसरी खद की शक्तियाँ हैं. पर वे शक्तियाँ प्रकट नहीं हुई हैं। और जो 'मैं करता हूँ', ऐसा कहते हैं वे तो 'खुद' की शक्ति से बाहर की वस्तु है। लोग कहते हैं न कि 'मैंने खाया, मैंने पीया, मुझे भूख लगी!''लगी है तब बुझा दे न !' तब कहता है, 'नहीं, अंदर कुछ डाले बगैर बुझेगी नहीं!' अहंकार पहले हो जाता है, उसके बाद यह शरीर बनता है, उसके बाद ये बाहर के परिणाम आते हैं। अहंकार से कर्म बंधते हैं और उसका यह फल है। ये मन-वचन-काया, वे सभी फल हैं। अहंकार 'कॉज़' है और ये मन-वचन-काया, वे 'इफेक्ट्स ' हैं। 'कॉज़ेज़ एन्ड इफेक्ट' 'इफेक्ट एन्ड कॉज़ेज़' ऐसे चलता ही रहता है। 'कॉजेज' को 'ज्ञानी पुरुष' बंद कर देते हैं। इसलिए मात्र 'इफेक्ट' ही रहते हैं, फिर वापिस 'इफेक्टिव बोडी' (पारिणामिक देह) नहीं बनती है।
धर्म : भेद स्वरूप से - अभेद स्वरूप से
अहंकार का स्वरूप प्रश्नकर्ता : वास्तव में आवागमन आत्मा का है या देह का?
दादाश्री : आवागमन न तो देह का है, न ही आत्मा का, अहंकार का ही आवागमन है। यह देह है, वह तो उसका सारा सामान लेकर आती है, परन्तु मूल आवागमन तो अहंकार ही करता है। जिसका अहंकार खत्म हो गया, उसका आवागामन बंद हो गया।
प्रश्नकर्ता : अहंकार की सच्ची परिभाषा क्या है?
दादाश्री : अहंकार की सच्ची परिभाषा जगत् समझा नहीं है। लोग जो समझे हैं, उस अनुसार नहीं है। सब खुद की भाषा में ही समझते हैं। हर एक की खुद की भाषा अलग होती है न? पर वह भगवान की भाषा के सामने नहीं चलेगी। वहाँ तो टेस्ट लेनेवाले हैं, वहाँ वह काम नहीं आएगी।
अहंकार यानी खुद नहीं करता है, फिर भी कहता है कि 'मैं करता हूँ' वह आरोपित भाव है। उसे अहंकार कहा जाता है। अहंकार मूल वस्तु है और उसमें से मान, अभिमान, गर्व, घेमराजी (अत्यंत घमंडी, जो खुद अपने सामने औरों को बिल्कुल तुच्छ माने) सब तरह-तरह के शब्द बने हैं। अभिमान कैसी चीज़ है? उसमें आरोपित भाव अर्थात् कि अहंकार तो है ही, लेकिन 'मेरे चार बंगले हैं, दो गाड़ियाँ हैं' ऐसा प्रदर्शन करे, वह अभिमान कहलाता है।
जो खुद नहीं करता है, उसे करने का आरोप करे, वह अहंकार है।
प्रश्नकर्ता : गीता में अहंकार को मूल वस्तु कहा है, उत्पत्ति से पहले की वह वस्तु होनी चाहिए न?
दादाश्री : वह उत्पत्ति से पहले की ही वस्तु है। गीता की बात सच्ची है। उत्पत्ति के बाद अहंकार नहीं होता। मूल तो पहले अहंकार हो जाता है और फिर उत्पत्ति होती है। इस भव में आपने जो-जो कर्म किए. उनका जो अहंकार करते हो, उसका फल अगले भव में आता है। यह तो करता है कोई दूसरा और आप भ्रांति से मानते हो कि मैंने किया। यदि
दुनिया में धर्म दो प्रकार के होते हैं : एक - आत्मा-परमात्मा को अभेद स्वरूप से पहचानना, वह एक प्रकार का धर्म है। दूसरा- आत्मापरमात्मा को भेद स्वरूप से पहचानना, यानी मैं और भगवान दोनों अलग हैं, उस प्रकार से पहचानना, वह।
पहले प्रकार का धर्म ऐसा है कि आत्मा ही परमात्मा है, वैसा भान होता है। यह सच्चा धर्म है, उसके बाद मुक्ति मिलती है। खुद का आत्मा ही परमात्मा है, ऐसा भान हो, तब मुक्ति मिलती है।
और आत्मा-परमात्मा अलग हैं, जब तक ऐसा भान है, तब तक पुण्य बंधता है या पाप बंधता है और इसलिए कारण शरीर उत्पन्न होता रहता है और अनंत जन्मों तक भटकता रहता है। भगवान अलग और मैं अलग ऐसा कहते रहते हैं, वह भ्रांत मान्यता है। वास्तव में भगवान और आप एक ही हो, पर आपको वह समझ में नहीं आता। आप और परमात्मा एक ही हो, ऐसा समझानेवाला कोई मिलता नहीं है, वह मिले तो आपको अभेद स्वरूप का भान करवाए। ये भगवान अलग लगते हैं, वे आपकी