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वही अनात्म विभाग है। आत्मप्रदेश तो उससे बिल्कुल ही न्यारा है।
'रिलेटिव' और 'रियल' का तादात्म्य इतना अधिक प्रवर्तित होता है। कि निन्यानवे तक दोनों समानांतर, दरअसल 'रियल' के प्रतिबिंब (फोटो) के स्वरूप में भास्यमान 'रिलेटिव' सामीप्यभाव में तादात्म्य रूप से प्रवर्तते हैं। जिस अंतिम कड़ी के माध्यम से वे दोनों भिन्न होते हैं, उसका रहस्य अनुभवी 'ज्ञानी पुरुष' द्वारा ही प्रकाशमान होता है। वहीं पर भ्रांतजागृति और आत्मजागृति का भव्य भेद अनुभव में आता है।
कितने ही काल से प्रारब्ध और पुरुषार्थ के भेद के स्पष्टीकरण के लिए मंथन हुआ है । अनुभवी 'ज्ञानी' उस भेद को बताकर भी गए हैं। परन्तु परोक्ष ज्ञान की प्रवर्तना में उनकी यथार्थ समझ पूर्णरूप से विछिन्न हो गई है। सामान्यरूप से कर्तृत्व के भान को, वैसे प्रयत्नों को और उनके परिणामों को पुरुषार्थ माना जाता है। 'ज्ञानी' की दृष्टि से वह संपूर्ण प्रारब्ध है। पाँच इन्द्रियों से, मन से, जो कुछ भी प्रवर्तन होता है, वह सब प्रारब्ध के अधीन है। पुरुषार्थ विभाग सूक्ष्म है, जिसकी थाह पाना कठिन है। जीव मात्र से भ्रांत पुरुषार्थ होता ही रहता है। जिसके आधार पर जीव का कारण कार्य का कालचक्र अविरत रूप से गतिमान रहता है। यथार्थ पुरुषार्थ प्रकट होने पर वह विराम पाता है। यथार्थ पुरुषार्थ पुरुष होने के बाद ही परिणाम में आता है । यथार्थ पुरुषार्थ अखंड, अविरत और निरालंब है, जिसकी जागृति से निरंतर मुक्त दशा प्रवर्तती है।
विश्व में वस्तुओं की कमी नहीं है, परन्तु उनकी प्राप्ति नहीं होती है। क्योंकि खुद के ही डाले हुए अंतराय उन्हें रोकते हैं। इन अंतरायों के रहस्य, वैसे ही उनसे जागृत रहने की सभी गुह्य चाबियाँ प्रकट 'ज्ञानी पुरुष' ने सरल और सहज रूप से स्पष्ट की है।
कर्म क्या है? कर्म किससे बंधते हैं? किससे छूटते हैं? कर्म की माता कौन? पिता कौन? इत्यादि, इत्यादि उठनेवाले गुह्य प्रश्नों का निराकरण होना अति कठिन है। शास्त्र सबकुछ कहते हैं, परन्तु वे दिशानिर्देश के समान है। दृष्टि में फर्क होने से उत्तर दिशा का निर्देश, दक्षिण का मानकर चलते जाते हैं।
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फिर दिल्ली कहाँ से आए? और चरम प्रकार का स्पष्टीकरण देने में तो शास्त्र भी असमर्थ हैं, वहाँ पर तो 'ज्ञानी पुरुष' का ही काम है। कर्म जैसे अति-अति गुह्य विषय का ज्ञान परम पूज्य दादाश्री ने सहज रूप से खेल-खेल में ही समझा दिया है।
वाणी टेपरिकॉर्ड है, सर्वप्रथम ऐसा कहकर वाणी के बारे में सारी तन्मयता को परम पूज्य दादाश्री ने फ्रेक्चर कर दिया है। यह 'रिकॉर्ड' किस प्रकार बजता है। किस प्रकार 'रिकॉर्ड' तैयार होता है? उसके क्या-क्या परिणाम हैं? वगैरह वगैरह सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्य खोलकर, वाणी का विकट विज्ञान सामान्यजन को भी पूज्य दादाश्री ने समझा दिया है।
ऐसे अन्य अनेक विषयों के रहस्य प्रकट किए हैं। जिन्हें, हो सके उतने प्रकाशित करने के प्रयत्न किए गए हैं। आशा है, पोजिटिव जीवनलक्षी विचारक, तत्वचिंतक, जिज्ञासुओं, वैसे ही मुमुक्षुओं को आप्तवाणी प्रति क्षण की जागृति देनेवाली बनी रहेगी।
प्रस्तुत ग्रंथ की कमियाँ एक मात्र, 'ज्ञानी पुरुष' के श्रीमुख से प्रवाहित हुई प्रत्यक्ष सरस्वती को परोक्ष में परिणमित करने में उपजी हुई संकलन की खामी ही है, जिसकी हृदयपूर्वक क्षमा प्रार्थना....
- डॉ. नीरूबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
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