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(९) व्यक्तित्व सौरभ
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दादाश्री : वैसी कोई वृत्ति ही नहीं है। फायदे का विचार ही नहीं आया, सब सहज रूप से होता है। किसी भी प्रकार की इच्छा ही नहीं है, यह निरीच्छक दशा हुई है !
प्रश्नकर्ता: आपकी ऐसी दशा कब से हुई है?
दादाश्री : वैसे तो सारा जीवन धर्मध्यान में ही गया है, पर १९५८ में ज्ञान प्रकट हुआ !
प्रश्नकर्ता : यह ज्ञान आपको प्रकट हुआ तो उसके पीछे आपने कितनी साधना की थी?
दादाश्री : 'यह' तो अनंत अवतारों की साधना का फल हैं, फिर भी इस अवतार में भी साधना थी। इसके उपरांत, माता के संस्कार बहुत उत्तम मिले हैं।
प्रश्नकर्ता: आपने व्रत, नियम, उपवास किए थे?
दादाश्री : हमसे सौगंध खाने जितना भी उपवास नहीं हुआ है। हाँ, पूरी ज़िन्दगी हमेशा उणोदरी तप किया है। चोविहार (सूर्यास्त से पहले भोजन करना), उबला हुआ पानी, कंदमूल निषेध वगैरह बहुत ही स्ट्रिकली किए हैं।
१९५८ का वह अद्भुत दर्शन
प्रश्नकर्ता: आपको १९५८ में सूरत में जो दर्शन हुआ, वह कैसा हुआ था?
दादाश्री : इस देह में से मानों कि अलग हो गए हों, वैसा लगा । प्रश्नकर्ता: वह मुक्तता कैसी लगी थी ?
दादाश्री : एब्सोल्यूट मुक्त ही, वह दशा अलग ही थी ! उसका वर्णन हो सके वैसा नहीं है !
प्रश्नकर्ता: वह मोमेन्ट (क्षण) था, उससे पहले आपको कुछ लगा
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आप्तवाणी-४
था कि कुछ होनेवाला है?
दादाश्री : शांति बहुत रहा करती थी। पर वह अहंकार सहितवाली शांति कहलाती है, वह काम की नहीं है। वह तो अज्ञानी को भी रह सकती है।
प्रश्नकर्ता: उस समय स्टेशन पर आपका आनंद अनोखा था?
दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टा - परमानंद, सारे गुण सहित अलग हो गया था। देह में नहीं, वचन में नहीं, मन में नहीं, उस तरह अलग हो गया था, उस स्थिति को 'ज्ञान प्राप्त हो गया' कहा जाता है। ज्ञान ही आत्मा है।
प्रश्नकर्ता: आपको ज्ञान प्रकट होने के बाद ज्ञानप्रकाश उतना ही रहता है या बढ़ता रहता है ?
दादाश्री : हमें तो यह 'अनुभवज्ञान' है। उसमें दो प्रकार का प्रकाश नहीं होता है। निरंतर एक ही प्रकार का प्रकाश रहता है, हमें आत्मा का स्पष्ट अनुभव है। जब तक आत्मा का स्पष्ट अनुभव नहीं हो जाता, तब तक ज्ञान बढ़ता रहता है। परन्तु स्पष्ट अनुभव हो जाए, तब वह ज्ञान पूरा हो जाता है।
प्रश्नकर्ता: आध्यात्मिक स्टडी करनेवाला पूर्णता तक पहुँचा, उसका किस तरह पता चले?
दादाश्री : उनकी वाणी वीतराग होती है, बातें वीतराग होती हैं, वर्तन वीतराग होता है। उनकी हरएक बाबत में उनकी वीतरागता होती है। कोई गाली दे तो भी वीतरागता और फूल चढ़ाएँ तो भी वीतरागता होती है। उनकी वाणी स्यादवाद होती है यानि कि किसी धर्म का, किसी जीव का प्रमाण नहीं दुभता (आहत होता)।
ज्ञान का तरीका नहीं होता
प्रश्नकर्ता: आप मुक्ति में विचरते हैं, परन्तु वह सिद्धि किस तरह प्राप्त हुई ?