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इच्छा, वह परिणाम है। भाव, वह कारण है। इस जगत् की कोई भी विनाशी चीज़ मुझे खपती नहीं', ऐसा निश्चय होने से भावों को 'सील' (पक्का बंद करना) लग जाती है। स्वरूपज्ञान होने के बाद इच्छाएँ इफेक्ट के रूप में ही होती हैं।
विचार और भाव में बहुत अंतर है। सिर्फ भाव ही, ज्ञान के बिना पकड़ा ही नहीं जा सकता। विचार इफेक्ट हैं, भाव कॉज है। भाव को द्रव्य में परिणमित होने में बहुत-बहुत समय चला जाता है। भाव कम्प्यूटर में जाता है, उसे परिपक्व होने के लिए दूसरे सारे संयोग मिलने चाहिए।
जगत् को प्रतिपक्षी भाव हुए बिना रहते ही नहीं, इसने मुझे ऐसा क्यों कहा?' वैसा प्रतिपक्षी भाव, पराक्रम भाव में आए हुए को तो ऐसा दिखता है कि यह मेरे ही कर्म का उदय है!
सिर्फ मन ही नहीं, परन्तु पूरा अंत:करण बिगड़े तब प्रतिपक्षी भाव होता है। मन बिगड़े वहाँ पर प्रतिक्रमण करे, तब वह सुधर जाता है।
ज्ञानी की आँखों में किसी भी प्रकार का भाव नहीं दिखता। प्रतिपक्षी भाव ही क्या, पर किसी भी प्रकार का भाव जहाँ नहीं है, उनके दर्शन करने से ही समाधि हो जाती है!
भाव का फोर्म भरा हुआ हो तभी वहाँ दूसरे सारे एविडेन्सिस इकट्ठे होते हैं और फल आता है। जिसे विवाह नहीं करना हो, वह विवाह नहीं करने के भाव में दृढ़ रहे तो उसे वैसे एविडेन्स मिल आते हैं। परन्तु बीज नहीं डाला हो, वहाँ चाहे जितनी बरसात पड़े तो भी वह किस प्रकार उगे? सड़ा हुआ बीज नहीं उगता, वैसे ही डगमगाता हुआ भाव रूपक में आए बिना नष्ट हो जाता है।
स्वरूपज्ञान की प्राप्ति के बाद भावकर्म ही उड़ जाता है। फिर भूतभाव रहते हैं। भावि भाव होने बंद हो जाते हैं और वर्तमान में तो स्वभावभाव में ही होता है!
केवल भावसत्ता ही होने के कारण उससे होनेवाले भाव नेचर में जाते हैं, जिसे कुदरत पुद्गल मिश्रित बनाकर रूपक में लाती है। इसमें आत्मा की कोई सक्रियता नहीं है।' व्यवस्थित' ही सबकुछ 'एडजस्ट' कर देता है।
ब्रह्मचर्य के भाव होते-होते भावस्वरूप हो जाए तो आनेवाले भव में सुंदर ब्रह्मचर्य उदय में आता है! 'जगत् का कल्याण किस तरह से हो' ऐसे भाव होते-होते भावस्वरूप में वैसा भावात्मा हो जाता है। पहले भावात्मा तीर्थकर होता है। फिर द्रव्यात्मा तीर्थकर होता है। विकल्प भाव को जन्म देता है! भीतर परमाणुओं की जो डिमान्ड होती है, उस अनुसार 'व्यवस्थित' सब इकट्ठा करके डिमान्ड पूरी करता है। लटू में डोरी लपेटते हैं-वे भाव हैं और खुलती जाती है-वह द्रव्य है।
शुद्धात्मा को भाव ही नहीं होता, पर प्रतिष्ठित आत्मा भाव करता है। भाव दृढ़ हो, वह रूपक में आता है।
क्रमिक में द्रव्य को तोड़ते रहना है। अक्रम में द्रव्य, भाव दोनों को एक तरफ रख दिया जाता है, फिर वहाँ केवल शुद्धात्मा पद की स्थिति रहती है।
भावमन भ्रांति से उत्पन्न होता है और द्रव्यमन फिज़िकल (स्थूल) है।
पिछले जन्म का भावकर्म इस जन्म में द्रव्यकर्म है कि जो आवरण स्वरूप होता है, वह आठ कर्म के चक्षु लाता है और उनके माध्यम से देखने से वैसे ही नये भाव उत्पन्न होते हैं। जिन्हें पदगल परमाण पकड़ लेते हैं, फिर वैसा द्रव्य परिणाम में आता है। परमाणु पकड़े जाते हैं, वहाँ प्रयोगशा होते हैं। जो फिर मिश्रसा के रूप में भीतर पड़े रहते हैं, वे कड़वे-मीठे फल देकर वापिस चले जाते हैं, वापिस ठेठ मूल शुद्ध विश्रसा अवस्था में ! परन्तु उस फल के समय वापिस खुद तन्मयाकार हो जाए तो नये प्रयोगशा होकर वह साइकिल (चक्र) चलती ही रहती है। आत्मभाव में आ जाए. फिर तन्मयाकार होने का नहीं रहने से'चार्ज' होने का प्रयोग रुक जाता है।
खुद से गलत हो जाए और मन में रहा करे कि यह गलत हुआ, गलत हुआ वह प्रतिभाव। ज्ञानी को प्रतिभाव नहीं होते।
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अज्ञानदशा में भावात्मा है और ज्ञानदशा में ज्ञानात्मा। भावात्मा के पास
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