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[३८] 'स्व' में ही स्वस्थता अवस्था में एकाकार हुआ कि हो गया अस्वस्थ। 'स्व' में मुकाम वहाँ स्वस्था
[३९] ज्ञान का स्वरूप : काल का स्वरूप प्रारब्ध से हर एक व्यक्ति बंधा हुआ तो होता ही है। इसलिए ही तो जन्म होता है। ज्ञान के बाद नये अगले जन्म का प्रारब्ध नहीं बंधता, वैसा अक्रमविज्ञान है।
ज्ञानी पुरुष निरंतर वर्तमान में ही रहते हैं ! इसलिए 'काल को वश किया' कहा जाता है!
[४०] वाणी का स्वरूप
जो बोलता है वह टेपरिकॉर्डर बोलता है, खुद नहीं बोलता और अहंकार करता है कि मैं बोला! आत्मा में बोलने का गुण ही नहीं है। वैसे ही पुद्गल का भी गुण नहीं है। शब्द तो पुदगल पर्याय है। परमाण रगड़ खाकर बाजे में से निकलें तब आवाज़ होती है, उसके जैसा है यह!
ज्ञानी की वाणी भी टेपरिकॉर्ड है, चेतन नहीं है। परन्तु चेतन को स्पर्श करके निकलती है ! ज्ञानी की वाणी स्यादवाद अर्थात् किसीका किंचित् मात्र प्रमाण नहीं दुभे (आहत हो) वैसी होती है। वह वाणी संपूर्ण जागृतिपूर्वक निकलती है और वह सामनेवाले के हित के लिए ही होती है। संसारभाव वहाँ होता ही नहीं।
ज्ञानी की वाणी उल्लासपूर्वक सुनता रहे तो खद की वैसी ही वाणी हो जाती है।
सर्व कर्मों का क्षय हो, कषाय निर्मल हो जाएँ. परा वीतराग विज्ञान हाज़िर हो जाए, आत्मा का स्पष्ट अनुभव हो जाए. अहंकार की भूमिका का अंत आए, जगत् पूरा निर्दोष दिखे, तब स्यादवाद वाणी का भव्य उदय होता है! तब तक उसे बुद्धि की, व्यवहार की बात मानी जाती है। तब तक मोक्षमार्ग
में उपदेश देना भयंकर जोखिम माना जाता है। जहाँ वाद नहीं, विवाद नहीं, संवाद नहीं, जहाँ मात्र स्यादवाद है, उनके द्वारा ही उपदेश दिया जा सकता है। सत् को समझने में संवाद-विवाद नहीं होते।
खुद का सत्य है इसलिए सामनेवाले को मानना चाहिए, वह भाव भी भयंकर रोग है ! सच्ची बात सामनेवाला कबूल करता ही है और नहीं करे तो हमें छोड़ देना चाहिए।
भूल रहित वाणी तो तभी निकलती है कि जब वाणी के ऊपर का मालिकीभाव शुन्यता को प्राप्त करे! 'मैं कितना अच्छा बोला' वह भाव आया. वहाँ वाणी का मालिकीभाव रहा हुआ होता ही है।
वाणी से स्व-बचाव करना - वह धर्मचर्चा का एक तरीका है, कषाय रहित भूमिका में रहकर सामनेवाले को कन्विन्स करे, उसे बदले- वह दूसरा तरीका है, और सामनेवाले को बदलते-बदलते खुद ही उससे मुड़ जाए - वह तीसरा तरीका!
जहाँ वीतराग चारित्र की वर्तना (आचरण) है, वैसे ज्ञानी की मीठी, मधुर, स्यादवाद वाणी किसीको आघात-प्रत्याघात नहीं करती। संपूर्ण आग्रह रहित वाणी ही सामनेवाले के हृदय को स्पर्श करती है और तब लोगों का कल्याण होता है ! ऐसी वाणी बेजोड़ होती है। ज्ञानी की गज़ब की सिद्धि होती है। हम भी उस भाव से 'ऐसी वाणी हो' की प्रार्थना करें तो वह प्राप्त होती है।
वचनबल तो उसे कहा जाता है कि जिस वचन के अनुसार ही सभी उल्लासपूर्वक आचरण करें! वाणी का दुरुपयोग, झूठ, सामनेवाले को डराया, झूठ के सहारे स्व-बचाव, दुराग्रह किए हों, उससे वचनबल टूट जाता है। सामनेवाले के हृदय को घाव लगानेवाली वाणी अगले जन्म में उसके फल स्वरूप बंद हो जाती है। किसीको जरा भी दुःख नहीं देना है और वचनबल प्राप्त हो' ज्ञानी से ऐसी माँग करते रहने से वह मिलता है। बोलने की जगह हो, वहाँ पर मौन रहे वह मौन तपोबल। मौन का महत्व नहीं है. मौन के साथ तपोबल चाहिए। ज्ञानियों के मौन तपोबल होते हैं, जो परे जगत् का कल्याण करनेवाले होते हैं। मुख पर भावाभाव की रेखा नहीं दिखे तब समझना कि