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क्रिया होती है-वह अधिक जिम्मेदार है, जबकि दूसरे में सिर्फ हाँ जी, हाँ जी होता है। वह नहीं हो तो भी होनेवाली क्रिया में कोई फर्क नहीं पड़ता। उसकी जिम्मेदारी इतनी नहीं होती। धर्म में उल्टी अनुमोदना भयंकर दोष बाँध देती
फल यहीं के यहीं भोग लिए जाते हैं और सूक्ष्मकर्म जो दिखते नहीं, मालिक को भी पता नहीं चलता, उन कर्मों का फल अगले जन्म में भोगा जाता है। दान देते हैं, वह स्थूल कर्म। उसका फल नाम, कीर्ति, वाह-वाह के रूप में लोग तुरन्त देंगे ही, परन्तु दान देते समय भीतर जो रहता है भाव, जैसे कि, इस मेयर के दबाव के कारण देना पड़ा, नहीं तो नहीं देता, या फिर मेरे पास अधिक होता तो अधिक देता, ऐसे भाव की वर्तना ही अगले भव में फलित होती है। स्थूल क्रिया के पीछे रहा अभिप्राय ही सूक्ष्मकर्म 'चार्ज' करता है। स्थूल कर्म डिस्चार्ज स्वरूप में है, इसलिए उसकी स्वाभाविक क्रिया होती है, कोई कर्ता नहीं और सूक्ष्म कर्म का कर्ता अहंकार है। मैंने किया' वह भाव ही कर्म बाँधता है, अक्रमविज्ञान कहता है। कर्म' से नहीं किन्तु 'व्यवस्थित शक्ति से आपका चलता है। कर्म तो भीतर पड़ा हुआ ही है, परन्तु उसे रूपक में लानेवाला 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स' है, कर्म तो 'व्यवस्थित' का एक अंश है!
आत्मा की चैतन्य शक्ति ऐसी है कि रोंग बिलीफ़ से विकल्प होता है कि यह मैं हूँ, तुरन्त सक्रिय स्वभाव से परमाणु वहाँ पर ही 'चार्ज' होकर आत्मा से लिपट जाते हैं, जिन्हें कर्म कहते हैं।
पहा
[३६] भाव, भाव्य और भावक भीतर भावक हैं वे भाव करवाते हैं, आत्मा नहीं। अंदर भावकक्रोधक-लोभक-निंदक और चेतक भी हैं। भावक भाव करवाएँ तब आत्मा भाव्य हो जाता है, निज स्वरूप का भान भूला है इसलिए ही तो न! भाव्य भावक के साथ एक हो जाए, वहाँ योनि में बीज पड़ता है। भाव्य भावक में एकाकार हुए बिना जुदा रहकर 'देखता' रहे तो बंधन नहीं है। इतना ही आत्मविज्ञान समझने की जरूरत है।
भावक-वे न तो वेदनीय हैं, न ही विकल्प, न ही वह अंत:करण का कोई भाग है। अंत:करण भी भावकों के बताए अनुसार चलता है। भावक भाव करवाएँ, तब आत्मा मुर्छित हो जाता है। प्रत्येक क्षण पलटे वह आत्मा हो ही नहीं सकता, वे भावक हैं।
प्रमेय के अनुसार प्रमाता होता है। समृद्धि और संसारभाव बढ़े, वैसे उसका प्रमेय बढ़ता है। वैसे ही प्रमाता भी बढ़ता है। वास्तव में प्रमाता वह कहलाता है कि आत्मा पूरे ब्रह्मांड में प्रकाशमान हो जाए। प्रमेय पूरा ब्रह्मांड है, जहाँ लोक है वहाँ पर।
[३७] क्रियाशक्ति : भावशक्ति भावशक्ति ही खुद के हाथ में है, क्रियाशक्ति नहीं। उसमें भी मोक्ष में जाने के भाव के अलावा अन्य कोई भाव करने जैसे नहीं हैं। जो भाव होते हैं वे नेचर में जमा हो जाते हैं। नेचर फिर उन्हें दूसरे सभी संयोग मिलवाकर कार्य को रूपक में लाने में सहायता करता है।
भाव ऐसी सूक्ष्म वस्तु है कि जिसे कोई देख ही नहीं सकता, ज्ञानी के अलावा! भाव से योजना गढ़ी जाती है और दूसरे जन्म में फलित होती है।
पीछे हटे बिना मन-वचन-काया की पूरी एकता से जो किया जाता है, उससे भयंकर गाढ़ कर्म बंधते हैं, जिनसे छूटना बहुत मुश्किल होता है, असंख्य बार हो चुकी आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान से ही छूटा जा सकता है।
'मैं चंदूलाल हूँ' मानकर जो-जो किया जाता है, फिर निष्काम करने जाए तो भी कर्म, शुभकर्म तो बंधते ही हैं। निष्काम कर्म में खद अकर्ता नहीं बनता, जब तक'खुद कौन है वह नक्की नहीं हो, तब तक किस प्रकार से हो सकता है? क्रोध-मान-माया-लोभ की उपस्थिति और निष्काम कर्म दोनों एक साथ किस प्रकार हो सकते हैं? 'मैं निष्काम कर्म करता हँ' वह मान्यता जाए किस तरह? निष्काम अर्थात् परिणाम की धारणा के बिना करते जाना वह, इतना कौन कर सकता है?
अनुमोदना दो प्रकार की हैं - एक में अनुमोदना के आधार पर ही
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