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खुदा के कितने नज़दीक गया!!! वहाँ नीरव शांति की अनुभूति के सिवाय अन्य क्या हो सकता है?
[३०] संयम परिणाम बाह्य संयम को भगवान ने संयम नहीं कहा है, परन्तु पर-परिणति उत्पन्न नहीं हो वह संपूर्ण संयम कहलाता है। क्रोध-मान-माया-लोभ के संयम को संयम परिणाम कहा जाता है। संयम से ही आत्मशक्ति प्रकट होती
है।
[३१] इच्छा पूर्ति का नियम मन का स्वभाव नित नया-नया ढूंढने का है। भीतर तरह-तरह की इच्छाएँ होती रहती हैं। वहाँ कुदरत उसे कहती है कि तेरी सभी अर्जियाँ स्वीकार होंगी, पर हमारी सुविधा अनुसार! इच्छा हो और वस्तु मिले, वह अधोगति में ले जाता है और इच्छा हो, फिर भी वस्तु का ठिकाना नहीं पड़े, वह ऊर्ध्वगति में ले जाता है।
[३२] टी.वी की आदतें मनुष्य देह बहुत मुश्किल से मिली है। परन्तु जिसकी जैसी समझ हो, वैसा उसका उपयोग करता है। कृष्ण भगवान गीता में यही कह गए हैं कि मनुष्य अनर्थ टाइम बिगाड़ रहे हैं। समझ के अभाव के कारण मनुष्यत्व छिन जाता है और सारा टाइम व्यर्थ चला जाता है।
[३३] लोभ की अटकण खुद के पास सबकुछ ही है, फिर भी ढूंढे, वह लोभी। 'व्यवस्थित में जो हो वह भले हो।' कहने से लोभ की गाँठ टूटने लगती है।
[३४] लगाम छोड़ दो एक क्षण भी पाँच इन्द्रियरूपी घोड़ों की लगाम छूटती नहीं है, और ढलान आए वहाँ खींचने के बदले ढीली रखता है और चढ़ाई पर ढीली रखनी
है वहाँ खींचता है। इसलिए 'ज्ञानी पुरुष' लगाम 'व्यवस्थित' को सौंपकर 'देखते' रहने का प्रयोग करना सिखाते हैं। सप्ताह में रविवार को यह प्रयोग करने से व्यवस्थित' यथार्थ रूप से समझ में आने लगता है, आचरण क्या हो रहा है, वाणी से रिकॉर्ड कैसी बज रही है, उसे और मन को 'खुद' देखते रहना है। जितने अंश से मन, वाणी और काया को जुदा देखा, उतने अंश तक केवलज्ञान उपजता है। मन-वचन-काया की क्रिया को हटानी या बदलनी नहीं है, उसे मात्र देखना ही है! डिस्चार्ज को किस प्रकार बदला जा सकता है? जब खुद अपने ही पुद्गल परिणामों को देखता रहे, तब केवलज्ञान सत्ता में होता है ! क्या होता है, उसे देखते रहना।' वह ज्ञानियों की अंतिम दशा का संयम है!
[३५] कर्म की थियरी समाधान वहाँ धर्म, असमाधान वहाँ अधर्म।
कर्म क्या है? आप ज्ञानी हैं, तो कर्म आपके नहीं हैं, अज्ञानी हैं, तो कर्म आपके हैं, कर्त्ताभाव से कर्म बंधते हैं। मैंने किया' उस आरोपित भाव से कर्म बंधते हैं। मैं चंदलाल हूँ' वही कर्म है। आत्मा कर्म का कर्त्ता नहीं है। भ्रांति से वैसा भासित होता है, भ्रांति हटी की कर्म का कर्त्ता नहीं और कर्म भी नहीं। कर्म कौन करता है? पुद्गल या आत्मा? दोनों में से कोई भी नहीं, अहंकार ही कर्म करता है। आत्मा व्यवहार से कर्ता है और निश्चय से अकर्ता है। आत्मा स्वभावकर्म का कर्ता है। पर रोंग बिलीफ़ से 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा मानता है
और कर्म बंधते हैं। आत्मा की हाजिरी से अहंकार खड़ा होता है और उसमें कर्ताभाव खड़ा होता है और उस भाव के अनुसार पुद्गल सक्रिय बन जाता है! अहंकार गया कि सबकुछ हो गया खत्म!!!'ज्ञानी पुरुष' खुद के स्वरूप का भान करवा दें, उसके बाद कर्म बंधते ही नहीं।
अनंत जन्मों के कर्म अर्थात् सभी जन्मों के कर्मों का जोड़ नहीं, परन्तु सार रूप के कर्म हैं! शुभ कर्म भोगते समय मिठास आती है और अशुभ भोगते हुए कड़वाहट!
स्थूल कर्म, यानी कि पाँच इन्द्रियों से अनुभव में आनेवाले कर्मों के
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